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Saturday, March 16, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 21

''निर्भया'' की कुर्बानी  मत भूलना !!


तुम्हारे नाज़ुक  ज़िस्म पर हैवानियत का हमला ,
दरिंदगी की इन्तिहां मुश्किल था संभलना   !

नोंच दिया अंग-अंग वहशी थे खूंखार ,
रो पड़ी मानवता सुनकर तेरा चीत्कार!

हे बहादुर बेटी !तेरे साहस को सलाम !
तू कड़की बनकर 'दामिनी' झंकझोर दी अवाम ! 

तेरी जिजीविषा ने सबको जगा  दिया ,
नारी के आगे  मस्तक  पुरुष  का झुका  दिया !

दामिनी की आह से उठा है जो तूफ़ान ,
भारत की हर बेटी तक पहुंचा दो वो पैगाम !

''निर्भया''बन करना हैवानों का सामना !
न भूलना कुर्बानी बस ये है कामना !!

रचनाकार: सुश्री शिखा कौशिक 
कांधला, शामली

Tuesday, March 12, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 20

नारी हूँ मैं नदी नही

नारी हूँ मैं नदी नही
चाहे जैसे मोड़ लो मुझको
मनचाहे रास्ते से जोड़ लो मुझको
मुझमे भी कुछ पलता हैं
अंगारो सा जलता हैं
थोड़ा सा सुलगता हैं
तुम सोचो मैं धारा बन बहु  नही...
नील गगन मे उड़ू नही
क्या ऐसा हो सकता हैं
मुझमे भी कुछ पलता हैं
मुझे पता हैं सांसो की कीमत
मुझे पता जज्बातो की कीमत
क्या नदी जान पाई हैं?
क्या नारी को पहचान पाई हैं
नदी, नदी हैं.. नारी नही हैं
उसके कुछ उसूल हैं..
अविरल बहना, प्रतिपल बहना
कही ना अटकना, आगे बढ़ना
विरोध ना करना,
धैर्य रखना सदगुण उसने रखे हैं
नारी मे भी सब पलता हैं 
जब उसको कोई छलता हैं
चीखती हैं, चिल्लाती हैं
पूरा आक्रोश, विरोध सब 
जतलाती हैं..
अनाचारण को वो अब सह
नही पाती हैं....
नारी श्रद्धा हैं, नारी पूजा हैं
नारी कोमलता हैं, नारी पूर्णता हैं
नारी धैर्या हैं लेकिन जब कब तक
जब तक कोई उसे छुए नही
जज्बातो को छेड़े नही
पीड़ा को घेरे नही..
वरना वो फिर दुर्गा हैं
काली हैं रणचंडी हैं
नही करती परवाह किसी की 
ऐसी वो वेगवती हैं..
अब बतलाओ नारी नारी हैं या
नारी एक नदी हैं?

रचनाकार: सुश्री अपर्णा खरे 

लखनऊ, उत्तर प्रदेश 

Monday, March 11, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या- 19

कविता: बेटियाँ भी जरूरी हैं 

बिना बेटी के जीवन में सभी खुशियाँ अधूरी हैं 
बहारें घर में लाने को बेटियाँ भी ज़रूरी हैं।

पिता और पुत्री का अनोखा एक रिश्ता है 
निभातीं सारे रिश्तों को ये बनकर के फ़रिश्ता हैं
लुटा दो सब दौलत इन पर फिर भी मोल सस्ता है 
बेटियों के बीन दुनिया की हर दौलत अधूरी है।

पिता जब देर से आते रात तक जागती रहती 
रजाई ओढ़ सर्दी में ये चौखट ताकती रहती 
मैं पापाजी की बेटी हूँ ये माँ से रूठकर कहती 
रोकती-टोकती जब माँ, पिता देते मंज़ूरी है।

विलायत भजकर बेटों को तुम अफसर बनाओगे 
देखोगे ख्वाब शादी के बड़े सपने सजाओगे 
गर्भ में मारकर बेटी बहु फिर कहाँ से लाओगे 
कोख में ही मिटाने की बताओ क्या मजबूरी है।

थी अवतार ममता की मदर टेरेसा सी बेटी 
 वो भारत रत्न कहलाई इंदिरा गांधी सी बेटी 
विलक्षण प्रतिभा रखती है ये प्रतिभा पाटिल सी बेटी 
किरण बेदी सी बेटी को बाहर लाना ज़रूरी है।

लक्ष्मीबाई सी बेटी ज़रा अरमानों से पालो 
गर्भ में सोई सीता को जन्म से पहले मत मारो 
तुम्हें सौगंध जननी की बनो न दानव हत्यारो 
लगेगा पाप अति भारी नरक जाना ज़रूरी है।

धन्य कोख उस माँ जिसने बेटी को पाला है 
कली गुलशन की है बेटी फूल की प्यारी माला है 
अमावस के अँधेरे में पूर्णिमा का उजाला 
बेटियों को बचाने का अब संकल्प ज़रूरी है।

रचनाकार: सुश्री पूर्णिमा अग्रवाल 
दिल्ली

Sunday, March 10, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 18

नैनो टेक्नोलॉजी - विश्व भाग्य विधाता
नैनो टेक्नोलॉजी विश्व की एक ऐसी अद्भुत और शक्तिशाली तकनीकि है, जो विज्ञान के समस्त रूपों को परिभाषित करती है। यह तकनीकि आगामी दिनों में विकास की एक नई परिभाषा लिखेगी, जिसके बिना आम आदमी के जीवन का विकास क्रम अधूरा होगा। साधारण से शब्दों में परिभाषित किया जाये, तो ऐसी तकनीक जो वर्तमान समय की भारी भरकम तकनीक से आगे बढ़कर हल्के रूप में विज्ञान के हर अविष्कार को नियंत्रित करती हो। जैसे कि मोटर्स, रोबोट, कंप्यूटर इत्यादि हल्के और शक्तिशाली आकार की मशीनें, जिनको आजकल लोग काफी पसंद कर रहे हैं। इन दिनों साइंटिफिक और इंजीनियरिंग समुदाय में यह चर्चा जोरों पर है, कि क्या नैनो तकनीक विश्व की भाग्य विधाता होगी। ऐसा होना संभव है, क्योंकि बड़ी से बड़ी चीजों को समेटकर एक छोटी एवं शक्तिशाली तकनीकि की डिवाइस विज्ञान के हर प्रयोग और आविष्कार के असंभव को सम्भव बना रही है। आप कल्पना कर सकते हैं, कि नैनो तकनीक से हमारे शरीर के भीतर ब्लड शैल में कोई भी छोटी चिप ट्रान्सफर की जा सकती है, जो कैंसर जैसी बीमारियों से निपटने में कारगर है। 
नैनो टेक्नोलॉजी की कुछ रोचक क्षेत्रों में आविष्कार: -
1. सुचना तकनीक सम्बन्धी क्षेत्र में 2. मेडिकल एवं स्वस्थ सम्बन्धी क्षेत्र में 3. नैनो इंजीनियरिंग डिवाइस बनाने सम्बन्धी क्षेत्र में 4. अन्तरिक्ष के रिसर्च सम्बन्धी क्षेत्र में 5. वायुयान के निर्माण में 6. कंप्यूटर बनाने सम्बन्धी चिप में 7. बायो मेडिकल इंजीनियरिंग में 8. कैंसर उपचार में 9. पर्यावरण और उर्जा के भंडारण एवं उत्पादन में 10. नाभिकीय एवं मिलेट्री हथियार बनाने में 11. अक्षय सौर उर्जा के समस्त रूपों में
  वर्तमान में किसी भी देश द्वारा विज्ञान की चुनौतियों को मात देते हुए इसके क्षेत्र में किया गया सफलतापूर्वक परीक्षण एवं आविष्कार, उस देश को विश्व के शक्तिशाली देशों की श्रेणी में ला खड़ा करता है। यह बहुत दुःख की बात है, कि हमारे देश भारत के हालात विज्ञान के रिसर्च और विकास क्षेत्र में बहुत ही दयनीय और पिछड़े हुए हैं। तमाम संसाधनों की कमी के चलते हम अन्य विकसित देशों की तुलना में लगभग 8-10 साल पीछे हैं। हम सभी को इस विकास की कड़ी को आगे बढ़ाने के लिए आगे आना ही पड़ेगा। ध्यान देने योग्य है, कि उस देश का ही उत्थान एवं विकास सुनिश्चित होता है, जो अपने जन के जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के समस्त संसाधनों की कमी को पूरा करने में खुद सक्षम हो और अपनी संस्कृति एवं संस्कार की रक्षा करने को पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध हो।
रचनाकार: श्री योगेश सिंह
प्रोजेक्ट वैज्ञानिक,
राष्ट्रीय वांतरिक्ष प्रयोगशाला -CSIR
बैंगलोर, भारत

Saturday, March 9, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या -17

बड़ा आदमी


मैंने सोचा और विचारा
बड़ा आदमी बन जाऊं
टाटा और अम्बानी जैसा
पैसे से तौला जाऊं.
मैंने सोचा और विचारा
सी .ऍम.,पी.ऍम. बन जाऊं
देश विदेश मे घुमू हर पल
वी आई पी कहलाऊं.
मैंने सोचा और विचारा
शाहरुख जैसा बन जाऊं
ऐश्वर्या से गल बहिआं हों
हीरो शीरो कहलाऊं.
मैंने सोचा और विचारा
धोनी जैसा बन जाऊं
चौकों -छक्कों की बारिश हो
विज्ञापन ...मे छा जाऊं.
एक बार बच्चन जी बोले
कुछ दिन साथ हमारे आओ
बड़े आदमी कैसे रहते
खुद सब तुम देख के जाओ.
अपने मन से पीना खाना
गली सहर मे घूमने जाना
खेतों मे गन्ने का चखना
चलते फिरते गाना गाना
मक्का की रोटी का खाना
दूध जलेबी संग मे भाना
बड़ा आदमी बनकर भैया
भूल चूका हूँ गाँव मे जाना.
सगे सम्बन्धी घर पर आते
उनसे सुख दुःख का बतलाना
सक्रेटरी का डंडा सर पर
काम सदा नियम बतलाना.
अपने बच्चों से भी हमको
टाइम लेकर मिलाना होता
झूठी शान की खातिर हमको
अकड़ अकड़ कर चलना होता.
बड़ा आदमी बन कर भैया
भूल चूका हूँ चाचा मामा
छूट गई सब रिश्तेदारी
याद रहा मीटिंग मे जाना.
कौन जिया और कौन मरा
बातें सब छोटी मोटी
आया है जो कल जायेगा
उस पर क्या रोना धोना.
संवेदना के दो बोल भी
नहीं हमारे पास रहे
औपचारिकतावश पत्र भेजना
यह भी सेक्रेटरी का काम रहे.
अपनी मर्ज़ी से सो जाना
कभी सुबह देर से उठना
भूल चूका अमुवा की छावं
याद नहीं गंगा तट जाना.
खुल कर हँसना बातें करना
कभी साधारण बस मे चलना
सिमट गया सब घर के भीतर
मुश्किल है जन साधारण बनना.
चुपड़ी हो या रुखी खाना
आज़ादी का जश्न मनाना
बड़ा आदमी से बेहतर है
अच्छा आदमी तुम बन जाना.
मानवता की खातिर जीना
शिक्षित होना और बनाना
अपने अच्छे आचरण द्वारा
जग मे "कीर्ति "खूब फैलाना.


रचनाकार- डॉ अ कीर्तिवर्धन


मुजफ्फर नगर, उत्तर प्रदेश 

Friday, March 8, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 16

मनु तुम कब समझोगे ?

मन से कोमल,चेहरे से निर्मल,आँखों से चपल
संचित उजालों से पति का घर प्रदीप्त करती
वह सृजन शक्ति समेटे सृष्टि का क्रम चलाती
फिर भी, बोझ कहलाती,कोख में मार दी जाती
उसे चिर-वंचिता रखने के कुभाव से कब उबरोगे ?

नारी की अहमियत को,मनु तुम कब समझोगे ?
जब उन्मुक्त हो खुली हवा में जीना चाहा, जी भर
तुम्हारी हैवानियत ने पैरो तले है रौंदा
कटे पंख सी फडफडाकर गिर पड़ी धरा पर..आह भर
टुटा संयम,जोड़ न पायी तिनके, न बना फिर घरौंदा

नारी अंतस की कोमल भावनाओं को कब मान दोगे?
अपनी मर्यादा में रहना ,मनु तुम कब समझोगे?
क्या नारी निज अस्तित्व की रक्षा हेतु झुझती रहेगी
तुम्हारे अहम् की पुष्ठी हेतु अग्नि परीक्षा देती रहेगी
या ,पाषाण-खंड बन ,राम के आने की बाट जोहेगी
निज सम्पति समझ जुएँ में उसे दांव पर लगाओगे
औरत की अस्मत का कब तक मोल भाव करोगे ?
नारी नहीं है निष्प्राण , मनु तुम कब समझोगे ....?

ज्यों रश्मियाँ बिन सूरज ,चाँदनी बिन चंदा अधुरा
नर भी होता कब नारी बिना पूरा ,
यज्ञ ,पूजा अनुष्ठान, सभी में नारी का योगदान 
नारी ही पुरुष को जीवन के यथार्थ से अवगत कराती
प्रेम समर्पण से अंतर्पट खोल सत्य की राह चलाती
क्या यह चिर-सत्य आत्मसात कर सकोगे 
दोनों एक दूजे के पूरक, मनु तुम कब.... समझोगे ?
मनु तुम कब.... समझोगे ?

रचनाकार: सुश्री संतोष भाऊवाला 
बंगलौर, कर्नाटक  

Monday, March 4, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 15

जब भी गुड्डे गुड्डीओं के खेल में
अपनी गुड़िया को मैने डोली में बिठाया था
उसका हाथ बड़े प्यार से गुड्डे को थमाया था

नम हो आई थी मेरी आँखें भी
तब यह मन ना समझ पाया था 

क्यों?
उस बेजान गुड़िया के लिए तब मेरा दिल रोया था
जिसे ना मैने पाला था,ना जिसका बीज बोया था

फिर कैसे?
अधखिली कली को खिलने से पहले ही कुचल डालते हैं
अगर भूल से खिल जाए तो घृणा से उसे पालते हैं

आख़िर क्यों?
माँ को ही सहना पड़ता हमेशा अपमान है
बेटी हो या बेटा यह तो बाप का योगदान है

अगर
अब भी ना रोका गया,'भ्रूण हत्या' का यह अभियान
तो बेटा पैदा करने को कहाँ से आए? 'माँ' ओ श्रीमान

इसलिए
शादी का लड्डू जो ना खा पाए वो तरसेंगे
जब बेटी रूपी नेमत के फूल ना बरसेंगे

तब
कहाँ से लाओगे दुल्हन जो पिया मन भाए
जो हैं नखरे वाले सब कंवारे ही रह जाएँ

लो कसम
यह कलंक समाज से आज ही हटाना है
'बेटी को बचाना है',बस 'बेटी को बचाना है'

 रचनाकार: श्रीमती सरिता भाटिया


उत्तम नगर, दिल्ली 


Sunday, March 3, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 14

ग़ज़ल
सोचो तुम तन्हाई में 
लुटते हम दानाई में ।

उथले जल में कुछ न मिले 
मिलता सब गहराई में ।

दौलत को सब कुछ माना 
उलझे पाई - पाई में ।

हमको भाते गैर सभी 
दुश्मन दिखता भाई में ।

दिल का खेल बड़ा मुश्किल 
खोई नींद जुदाई में ।

विर्क यकीं बस तुम करना 
दें दिल चीर सफाई में ।

रचनाकार: श्री दिलबाग विर्क
सिरसा, हरियाणा 

Saturday, March 2, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 13

कीमियागर (बाल कहानी)

पता नहीं कहाँ से मिली थी उसको वह किताब ? एकदम पुरानी जर्जर सी |कहता था कि एक फ़कीर जा रहा था प्यासा मैंने उसे पानी पिलाया तो खुश हो कर उसने मुझे ये किताब दी |
यह किताब थी कीमिया पर | कीमिया यानि सोना बनाने कि विधि | इस किताब में ऐसे प्राचीन नुस्खे लिखे थे जिससे अन्य धातुओं को सोने में बदला जा सकता था | यह नुस्खे बड़े ही रहस्यपूर्ण थे | आसानी से समझना संभव नहीं था लेकिन जब से उसे यह किताब मिली थी उसपर सोना बनाने कि धुन ही सवार थी | सरे कम-काज छोड़ कर वह तरह तरह के प्रयोग किया करता था | खाना खाने कि भी उसे सुध नहीं रहती थी |
वैसे उसका नाम तो दीनू था लेकिन लोग उसे कीमियागर ही कहते थे | यह नाम भी उसने किताब से पढ़कर बताया था | उसमे लिखा था कि जो कीमिया का प्रयोग यानि कीमियागिरी करते है उन्हें कीमियागर कहा जाता है | दीनू दिन भर सोना बनाने में उल्खा रहता था | हालांकि उसे किताब के सूत्र बिलकुल भी समझ नहीं आते थे  | दीनू की इस जिद्द से उसके पिता जी बहुत परेशान थे | गाँव वाले उसके निठल्लेपन पर हँसते थे | उसके वृद्ध पिता गरीब किसान थे | माँ बहुत पहले ही संसार से चली गयीं | पिताजी दिन भर खेतों पर मेहनत करते तब जाकर दो जून कि रोटी जूता पते थे | लेकिन दीनू था कि थके हारे घर आये पिताजी का भोजन बनाने में भी हाथ न बंटाता |बस लगा रहता था कीमियागिरी मे पिताजी कोई कम कहते तो झल्ला उठता | वह अमीर बनना चाहता था खूब सारा सोना बना कर |
गेहूं कि फसल पक चुकी थी | अब कटाई की बारी थी | अचानक ही दीनू के पिता जी बीमार पड़ गए | जब उन्होंने दीनू से कटाई के लिए कहा तो वह पिताजी समझते हुए बोला, “इस घास का मूल्य तो कुछ भी नहीं है |मई सोना बनाकर खूब अमीर बनूँगा |”
उसके पिताजी समझाना चाहते थे कि यह अन्न का अपमान है लेकिन वह तब तक वहां से जा चूका था |
पिताजी कि बीमारी ठीक नहीं हो पा रही थी | न ही वह कम पर जा पा रहे थे | धीरे-धीरे घर पर खाने का सारा सामान खत्म हो गया | वैद्य जी से दवाई लेन के भी पैसे नहीं थे | उसदिन घर में चूल्हा भी नहीं जला मज़बूरी में दीनू ने फसल कि कटाई की और बेचने कि सोचने लगा | उसने सुना था कि पड़ोस वाले राज्य में अकाल पड़ा है | उसने वाही जा कर फसल बेचने का निर्णय लिया |
दीनू जब वहां पहुंचा तो स्तब्ध रह गया | चकित सा कुछ देर तक वह वहां का दृश्य देखता रहा | भूख से व्यकुल लोगों की तड़प देखकर उसकी आखें भर आई | निर्धनों कि बात ही क्या करनी धनी लोग दोगुने-चौगुने दाम देकर भी अन्न कि भीख मांग रहे थे | एक बहुत धनी व्यक्ति ने तो सोने की मोहरों से भरी थैली देकर दीनू का सारा गेहूं लेना चाहा | दीनू ने मोंहरें स्वीकार नहीं की और सारा गेहूं गरीबों को उचित दामों पर घर लौट चला |
रस्ते भर वो सोचता रहा कि जिसको वह घास समझता था वह अन्न तो अनमोल है | सोना क्या है अन्न कि तुलना में ? कुछ भी नहीं | सोना बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण अन्न उपजाना है | अन्न जीवन कि जरुरत है | सोना बहुमूल्य हो सकता है लेकिन अन्न अमूल्य है |
घर पहुँचकर दीनू ने वहां का सारा हाल पिताजी को कह सुनाया | अपनी भूल स्वीकार कर माफ़ी भी मांगी | इसके बाद दीनू कीमिया की किताब लेकर घर से बाहर जाने लगा तो पिताजी ने पूछा, “कहाँ जा रहे हो दीनू ?”
“यह बेकार किताब नदी में फेंकने |”
दीनू ने मुकुराते हुए उत्तर दिया | उसकी बात सुनकर पिताजी ने उसे समझते हुए कहा , “ज्ञान कोई भी हो बेकार नहीं होता | मेरी मानो तो ये किताब राजा को दे दो | जानकर लोग इस ज्ञान को समझने कि कोशिश करेंगे |”
दीनू ने पिताजी कि बात को गंभीरता से लिया और वह किताब राजा को जाकर दे दी | सचमुच राजा ऐसी दुर्लभ पुस्तक पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ | उसने ढेरों पुरुस्कार देकर दीनू को खुशी-खुशी विदा किया |

रचनाकार: श्री आशीष शुक्ला 
कानपुर, उत्तर प्रदेश

Thursday, February 28, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 12

तुम मुझ में एक जिस्म देखते हो, और मै तुम में एक रूह देखती हूँ, तुम एक पाक रूह हो, और मै एक पाक जिस्म हूँ, यूँ तो तुम बच्चों जैसे मासूम हो, पर तुम्हारी भूख आदमी जैसी है, यूँ तो मै भी यौवन से भरपूर हूँ, पर मुझे तलाश खुदा की है, जिस दिन तुम्हारा दिल, मेरे जिस्म में एक रूह तलाश ले, और मै तेरी रूह का जिस्म तलाशना चाहूँ, उस दिन तय करेंगें, मुलाकात का दिन, और फिर जीयेंगें ज़िन्दगी, भले ही कुछ लम्हों की ....

रचनाकार: सुश्री नीलम नागपाल मैदीरत्ता


गुडगाँव, हरियाणा

Wednesday, February 27, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 11

ये अंतहीन सफर !!! न जाने कौन है वो... जिसके लिए चमकता है... रात भर !!! कितनी सदियाँ बीत गयी हैं और अभी कितनी बीतेंगी यूँ ही... फलक पर !!! शायद कुछ तलाशता है... शायद कुछ ढूंढता है !!! या फिर... मिली है उसे सज़ा... किसी को रुसवा करने की... किसी से बेवफाई करने की... या फिर दे रहा है सबूत... अपनी वफ़ा का.... न जाने कब खत्म होगा चाँद का ये सफर.... ये अंतहीन सफर !!!!


रचनाकार: श्री रविश ‘रवि’

फरीदाबाद, हरियाणा

Monday, February 25, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 10

पैसे काफ़ी नहीं 


एक किशोर बेटा,
बचपन की चादर से निकलकर 
यौवनावस्था की ओर बढ़ता बेटा ।
एक ओर स्कूल का दबाव, 
पढाई से ज्यादा खेलों का आकर्षण,
मंजु चेहरों से दिल में होती हलचल, 
और परिवार की बेशुमार उम्मीदें ।
नहीं लगता दिल घर में 
दोस्ती-यारी-मस्ती और कुछ नहीं 
न होती इच्छा बतियाने की माँ-पिता से भी ।
माँ की बातें सुनी नहीं जाती, 
पिता के सवालों को भी टाल देता ।
डाँटकर कहते पिता कि 
कितना खर्च कर रहे हैं तुम पर 
मँहगी फीस और अच्छे कपडे 
बहा रहे हैं पैंसों को ।
बेटे ने दिया जवाब चीखते हुए 
मुझे नहीं मिलता कोई घर में ऐसा 
जिससे बाँट सकूँ कुछ भाव दिल के,
जिससे कर सकूँ बातें पढाई से हटकर भी, 
दुःख है, आपके पैसे प्रेम नहीं बोते,
पिताजी ! महज पैसे काफी नहीं होते ।
फिर कई वर्षों बाद -
बेटा व्यस्त विदेश में 
रोजी-रोटी जुटाता
रहता पत्नी-बच्चों के साथ,
और 
घर में अकेली दो जोड़ी बूढी आँखें । 
हफ्ते-महीने में होती बातें फ़ोन पर 
माँ बहाती आँसू असंख्य 
पिता सिसकते कोने से लगकर,
बेटा करता कोशिश समझाने की 
कभी प्यार से, कभी डाँटकर
और कहता - 
कि आप लोगों को कमी क्या है ?
मैं हर महीने भेज तो रहा हूँ पैसे ।
पिता सिसकते-बिलखते बोले
बेटा ! तुम्हारी याद का दाम क्या लगायें हम ?
तुम्हारे भेजे हुए कागज़ के टुकड़े 
पड़े रहते हैं बैंक के खातों में मगर 
बात कुछ और होती जो तुम यहाँ होते, 
बेटे ! सिर्फ पैसे काफी नहीं होते ।
सिर्फ पैसे काफी नहीं होते ।।



रचनाकार: श्री  आशीष नैथानी 'सलिल'

हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश)

Saturday, February 23, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 9

बेटियाँ 

वो नन्ही परियां होले से,
जब जीवन में आ जाती है,
घर भर में खुशियां छलक-छलक,
मुस्कुराहटें भर जाती है।
नाजुक पग, कोमल स्पर्श, चंचल सी हंसी,
सभी को फिर भा जाती है।
जिस घर मे बेटियां आती है,
वहाँ रौनके लग जाती है।
कभी कल्पना, कभी इन्दिरा, कभी टैरेसा बन जाती है,
कुल का नाम रौशन कर देती है, बेटियां जब पढ़ जाती है।
प्यार, विश्वास, दया, सहिष्णुता, त्याग सभी को सिखा जाती है,
धन्य है ये बेटियां, ये मकानों को ‘घर’ बनाती है।
दुःख आधा करके खुशियों को दुगनी कर जाती है,
‘‘पराया धन’’ नही ‘‘चक्रवृद्धि ब्याज’’ है यह
इस घर को महकाती है।
उस घर को भी सुरभित कर जाती है।
        
रचनाकार: सुश्री पूनम मेहता
कोटाराजस्थान

Wednesday, February 20, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 8

उन्मुक्तता

क्यों मिल गयी संतुष्टि
उन्मुक्त उड़ान भरने की
जो रौंध देते हो पग में

उसे रोते , कराहते

फिर भी मूर्त बन

सहन करना मज़बूरी है

क्या कोई सह पाता है

रौंदा जाना ???
वो हवा जो गिरा देती है
टहनियों से उन पत्तियों को
जो बिखर जाती हैं यहाँ वहाँ
और तुम्हारे द्वारा रौंधा जाना
स्वीकार नहीं उन्हें
तकलीफ होती है
क्या खुश होता है कोई
रौंधे जाने से ??
शायद नहीं
बस सहती हैं और
वो तल्लीनता तुम्हारी
ओह याद नहीं अब  तुम्हें
भेदती है अब वो छुअन
जो कभी मदमुग्ध करती
तुम्हारी ऊब से खुद को निकालती
अब प्रतीक्षा - रत हैं वो
खुद को पहचाने जाने का
टूटकर भी
खुशहाल जीवन बिताने का
क्या जीने दोगे तुम उन्हें
उस छत के नीचे अधिकार से
उनके स्वाभिमान से
या रौंधते रहोगे हमेशा !!!
अपने अहंकार से
इस पुरुषवादी समाज में
आखिर कब मिल पायेगी
उन्हें उन्मुक्तता ???

रचनाकार: सुश्री दीप्ति शर्मा


आगरा, उत्तर प्रदेश 

Friday, February 15, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 7

क्या तुम लौटा पाओगे?

जुर्म जो ये संगीन किये हैँ,

क्या उनको भर पाओगे?

जो कुछ तुमने छीन लिया है,

क्या तुम लौटा पाओगे?

थकी हुई यह सूखी धरती,

जल की दो बूँदोँ को तरसती,

उसके सीने की फुहार तुम,

उसको लौटा पाओगे?

उङते विहग शिकार बन गए,

मानवता पर वार बन गए,

कर्णप्रिय वो चहचाहटेँ,

क्या तुम लौटा पाओगे?

रंग-बिरंगी पुष्प लताएँ,

सावन की ठंडी बरखाएँ,
सौँधी माटी की सुगंध वो,
क्या तुम लौटा पाओगे?
वन्य पशु विलुप्त हो गए,
जो थे वो भी सुप्त हो गए,
बाघोँ, सिँहोँ की दहाङ वो,
क्या तुम लौटा पाओगे?
धरती माँ की अथाह हरीतिमा,
चिर यौवन की भाव भंगिमा,
सहती अत्याचार तुम्हारे,
क्या तुम लौटा पाओगे?
झेल रहीँ त्रासदी नदियाँ,
बहते-बहते बीती सदियाँ,
उन का साफ़ स्वच्छ शीतल जल,
क्या तुम लौटा पाओगे?
पेङ जो तुमने काट दिये हैँ,
हरे सूखे सब छाँट दिये हैँ,
आतंकित पेङोँ का गौरव,
क्या तुम लौटा पाओगे?
पशु-पक्षी को तुम खाते हो,
फिर भी भूखे रह जाते हो,
प्राण जो तुमने छीन लिये हैँ,
क्या तुम लौटा पाओगे?
खोद चले हिमालय सारा,
मिला है जो दैवीय सहारा,
विस्मित हो कर धरती पूँछे,
"क्या तुम लौटा पाओगे?"


रचनाकार: सुश्री स्वरदा सक्सेना



बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश 

Friday, February 8, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 6



भर रही हुंकार सरहद लहू  का टीका सजा के

ले गए मुंड काट कायर धुंध में सूरत छुपा के 

भर रही हुंकार सरहद लहू  का टीका सजा के 
नर पिशाचो के कुकृत्य अब सहे ना  जायेंगे 
दो के बदले दस कटेंगे अब रहम ना  पायेंगे
बे ज़मीर हो तुम दुश्मनी  के भी लायक नहीं
कहें जानवर तो होता उनका भी अपमान कहीं
होते जो इंसा ना जाते अंधकार में दुम दबा के 
भर रही हुंकार सरहद लहू  का टीका सजा के 
बारूद  के ज्वाला मुखी  को दे गए चिंगारी तुम
अब बचाओ अपना दामन मौत के संचारी तुम 
भाई कहकर  छल से पीठ पर करते वार हो
तुम कायर तुम नपुंसक   बुद्धि से लाचार हो
मृत हो संवेदना जिसकी वो खुदा का बंदा नहीं 
माँ का दूध पिया जिसने वो भाव से अंधा नहीं 
मूषक स्वयं शिकारी समझे सिंघों के शीर्ष चुराके  
भर रही हुंकार सरहद लहू  का टीका सजा के 
 देश के बच्चे बच्चे को तुमने अब उकसाया है 
राम अर्जुन भगत सिंह ने अब गांडीव उठाया है 
मत लो परीक्षा बार बार तुम देश के रखवालो की 
बांच लो किताब फिर से आजादी के मतवालों की 
वही  लहू है वही  युवा हैं वही वतन की है  माटी 
वही जिगर है वही हवा है वही जंग  की परिपाटी 
 ले रहे सौगंध सिपाही छाया में अपनी ध्वजा के 
भर रही हुंकार सरहद लहू  का टीका सजा के




रचनाकार: सुश्री राजेश कुमारी 


देहरादून, उत्तराखंड