जब भी गुड्डे गुड्डीओं के खेल में
अपनी गुड़िया को मैने डोली में बिठाया था
उसका हाथ बड़े प्यार से गुड्डे को थमाया था
नम हो आई थी मेरी आँखें भी
तब यह मन ना समझ पाया था
क्यों?
उस बेजान गुड़िया के लिए तब मेरा दिल रोया था
जिसे ना मैने पाला था,ना जिसका बीज बोया था
फिर कैसे?
अधखिली कली को खिलने से पहले ही कुचल डालते हैं
अगर भूल से खिल जाए तो घृणा से उसे पालते हैं
आख़िर क्यों?
माँ को ही सहना पड़ता हमेशा अपमान है
बेटी हो या बेटा यह तो बाप का योगदान है
अगर
अब भी ना रोका गया,'भ्रूण हत्या' का यह अभियान
तो बेटा पैदा करने को कहाँ से आए? 'माँ' ओ श्रीमान
सरिता भाटिया जी की रचना बहुत सुन्दर है!
ReplyDeleteमेरी ओर से बहु-बहुत शुभकामनाएँ!
अच्छा सन्देश देती हुई सार्थक रचना!
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महिला दिवस की बधाई हो!
सरिता जी आप लिखती रहिए...आपकी लेखनी में दम है!
बहुत अच्छी रचना, शुभकामनाएँ.
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