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Tuesday, March 5, 2013

शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 13

    कहानी: कहाँ है मेरा घर 
    शाम का समय था यही कोई चार बजे होंगे जब हम सब हरिद्वार पहुंचे । मैंने सोचा चलो अभी गंगा स्नान कर आती हूँ अन्यथा वहाँ शाम की आरती  के लिए बहुत भीड़ हो जाएगी बच्चों और माँ को स्नान कर पाना मुश्किल होगा । बच्चे अपनी नानी का हाथ पकड़े आगे चले गए थे मुझे कमरे को बंद कर निकलना था तो मै पीछे रह गई जब तक मै पहुंची सब नहाने धोने मे लगे थे । गंगा के किनारे सीढ़ियों पर धीरे धीरे चढ़ती हुई वो वृद्धा हाथ मे बड़ा सा कलसा लिए वो भी जल से भरा था जिनकी उम्र करीब नब्बे वर्ष के आसपास रही होगी , जितनी उनकी उम्र थी उसकी चौगुनी झुर्रियां उसके शरीर पर थी । परंतु मुख पर तेज था वो देखने से काफी फुर्तीली नजर आ रही थी । मै सीढ़ियाँ उतर रही थी ज्यादा भीड़ भाड़ न होने की वजह से मै थोड़ा आराम से चल रही कि मेरी नजर उन पर पड़ी उनकी तरफ बढ़ते हुए मैंने सोचा शायद वे चल नहीं पा रही हैं, मै उनकी मदद कर देती हूँ । मैंने बढ़ कर उनको पकड़ा – “ अम्मा जी आप अकेले ही चली आईं कोई  साथ नहीं है क्या इतनी उम्र हो चली है आपकी कहीं आप फिसल जाती ।" हँसते हुए उन्होने जवाब दिया – “ नहीं बेटा दुनिया में  अकेली ही आई थी किसी को भी साथ लेकर नहीं आई थी , सारे रिश्ते तो यहीं बने थे, यही टूट भी गए ।” और आगे बढ़ने लगीं । मैंने फिर कहा – “ लाइये अम्मा जी मै आपका कलसा ऊपर पहुंचा देती हूँ ।  वे बोलीं – “ बेटा ये तो मेरा रोज का काम है , मै रोज सुबह शाम आती हूँ , नहाती हूँ और अपने भोले बाबा को नहलाती हूँ , तुम न परेशान न हो।” मै वहीं खड़ी उन्हे ही देखती रही वे झटपट सीढ़ियाँ चढ़ गईं और वहीं घाट पर बने शिव जी के मंदिर मे चली गईं । मै पूरा समय उनके विषय मे ही सोचती रही । मन बहुत व्यथित था उनसे मिलने और उनके विषय मे जानने की इच्छा बलवती हो रही थी । अगले दिन सुबह जल्दी ही उठ कर उसी घाट पर पहुंची जहां वो महिला मिली थी ,पर वो वहाँ न दिखी वहीं इंतजार करना ज्यादा उचित लगा सो वहों बैठ गई । थोड़ी देर मे वे आ गईं तब तक मै स्नान वगैरह से निवृत्त हो चुकी थी । और उनका पूजन भी समाप्त हो गया था । मै लपक कर उनकी ओर बढ़ी – अम्मा जी आपसे कुछ बाते करनी है।” वे हंस दी – वहीं मंदिर के बाहर ही हम दोनों बैठ गए । “बोल क्या बात करना चाहती है ? मुझे तो कल ही लगा था, कि तू मेरी बात से अभी संतुष्ट नहीं हुई है, तू मेरे पास फिर आएगी जरूर।“ मैंने कहा – "अम्मा जी आप यहाँ कब से रह रही है या आप यही की रहने वाली है और अगर यहीं की रहने वाली है तो अकेले क्यों इस उम्र मे भटक रही है ।” और भी जितने प्रश्न मेरे मानस पर उभरे थे सभी एक एक कर कह डाले।  वे हंसी पर इस बार हंसी मे दर्द उभर आया था । कुछ सोंचने लगी और उनकी आंखे भर आई आँसू लुढ़क कर बहने लगे । मैंने कहा -“ अम्मा जी आपको तकलीफ देना नहीं चाहती आप न बताना चाहे तो न बताए कोई बात नहीं ।” वे बोली – “नहीं बेटा ऐसी बात नहीं है मर्ज जब पुराना हो जाता है तब नासूर बन जाता है और नासूर कभी कभी धोखा दे देता है । मै अल्मोड़ा की रहने वाली थी पर जीवन ने ऐसा भटकाया कि अब तो ठीक से यह भी याद नहीं कि मै कहाँ कहाँ रही हूँ आज जीवन के अंतिम पड़ाव पर मै यहाँ अपने भोले बाबा की शरण मे हूँ और दीन दुःखियों की सेवा कर लेती हूँ मुझे बड़ा सुख मिलता है । फिर वे कहीं खो सी गई - " जब जन्म हुआ उसी के दो घंटे बाद माँ चल बसी । पिता ने कुलक्षणी कहकर ठुकरा दिया । आजी (दादी )के पास रही ,बिन माँ की बच्ची थी तो प्यार दुलार की उम्मीद तो खत्म हो गई थी, फिर भी आजी ने बड़े प्यार से पाला था । लेकिन मेरी फूटी किस्मत आजी भी जल्द ही परलोक सिधार गईं ,पिता ने दूसरा ब्याह कर लिया था नई माँ ले आए थे । सोचा शायद नई माँ के साथ खूब काम करूंगी तो प्यार मिल जाएगा , पर नई माँ तो आई ही इस शर्त पर कि मुझे घर मे नहीं रखा जाएगा । मुझे घर से बाहर निकाल दिया गया । मै बिन माँ बाप की बच्ची कहाँ जाती एक पड़ोसी के घर शरण ली पर वहाँ भी कितने दिन रहती । वहाँ से ननिहाल जाना सही लगा तो उन चाचा के साथ अपने ननिहाल आ गई । सोचा कि नाना नानी के साथ जीवन ठीक से कट ही जाएगा । परंतु अभागी मै यहाँ भी जगह न मिली , आए दिन घर मे मामा मामी का नाना नानी से झगड़ा होने लगा । इस झगड़े अंत हुआ मुझे अनाथ आश्रम भेज कर । यहाँ दीदी जो संचालन करती थी वो सभी को बड़े ही प्यार से रखती थी । कुछ समय ठीक से कट गया । अब तक मै चौदह वर्ष की हो चुकी थी और खाना बनाना , कपड़े सीना , पिरोना , सभी काम अच्छे से सीख गई थी । आश्रम का खाना बनाती और थोड़ा सिलाई का काम बाहर से ले आती तो वह भी कर लेती लोग हमारे कम से बड़े खुश थे । धीरे धीरे मैंने दीदी के साथ पढ्ना लिखना भी सीख लिया और तब के जमाने मे मैट्रिक पास कर लिया । समय कटता गया मैंने सोचा शायद अब जीवन की कठिनाइयाँ समाप्त हो गई है । परंतु कहाँ इतना लंबा जीवन था कठिनाइयाँ तो जैसे मेरी सहचरी ही हो गयी थीं । आश्रम की दीदी भी वृद्ध हो चली थीं वह चाहती थीं की उनके जीवन काल मे ही मेरा ब्याह हो जाए और मै सुख से रहूँ । प्यार और ममता क्या होती है यह मैंने उनके सानिध्य मे जाना । उन्होने मेरे लिए वर की तलाश शुरू कर दी काफी समय के बाद एक लड़का मिला जो बनारस मे एक डिग्री कालेज मे प्राध्यापक था। उसकी पहली पत्नी मर चुकी थी वह मुझसे विवाह करने को तैयार हुआ । वे देखने बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व वाले थे। मैंने सोचा मै साधारण नयन नक्श वाली लड़की हूँ ये क्या विवाह करेंगे लेकिन वे तैयार थे सारी बातें हमारी आश्रम वाली दीदी ने बता दी थीं और तय भी कर लिया था । एक बहुत बड़े आदमी ने मेरे ब्याह का खर्च उठाया बड़े धूम धाम से दीदी ने मेरा ब्याह किया और मै पति साथ बनारस चली गई । इधर दो महीनों के बाद पता चला की दीदी का भी स्वर्गवास हो गया है । मुझे बड़ा धक्का लगा मैंने पति से आश्रम जाने की इच्छा जताई तो वे बिगड़ गए और दुबारा फिर वहाँ न जाने की कसम भी ले डाली । मै भी क्या करती सुखमय जीवन की अभिलाषा मे उनकी बात मान ली । एक साल के बाद मैने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया , खुशियाँ मानो मेरी झोली मे आने को तैयार थी कि हमारे पति का तबादला बुलंदशहर हो गया , और मै मेरे बेटे के साथ अकेली घर मे रह गई । समय काफी हो गया बेटा भी बड़ा हो रहा था। मैंने पति से कहा कि अब अभिनव बड़ा हो गया है अब हमे साथ रहना चाहिए यूं अकेले कब तक !! पति ने झ्ंझलाते हुए कहा - " कहो तो छोड़ दूँ नौकरी साथ मे रहने लगूँ ।"   मैंने सकुचाते हुए कहा - " मै ये तो नहीं कह रही कि नौकरी छोड़ कर साथ रहें , आप हमे भी साथ ले चलिये ।"  परंतु बहस का कोई निष्कर्ष न निकाला जा सका । कुछ दिन बाद पति देव आए तो बेटे को अपने साथ लिवा गए , मै  फिर अकेली रह गई । थोड़े दिन बाद बेटे ने चिट्ठी लिखी माँ यहाँ पापा ने मेरा दाखिला बड़े ही अच्छे स्कूल मे करा दिया है , घर भी बड़ा अच्छा है काम करने को एक आंटी आती है वही झाड़ू कटका बर्तन कपड़े और खाना बनाना सारा काम कर जाती है आप भी आ जाओ बिना आपके घर अच्छा नहीं लगता ।
और उसने घर का पता उसी चिट्ठी मे लिख दिया । मै खुशी खुशी समान बांध कर हजारों सपने बुनती हुई जा पहुंची जहां मेरा संसार था । पति ने मुझे देखा तो भड़क गए - " एकबार बताना तो चाहिए था चली आई बिना बताए" और तमाम बाते वो बड़बड़ाते रहे और मै चुपचाप सुनती रही । सोचा ऐसी भी कौन सी गलती मैंने कर दी कि ये इतना भड़क गए । लेकिन उस दिन के बाद से मेरे अपमान का जो दौर चला वो दिन प्रतिदिन बढ़ता ही गया । बेटे को भी उनका ही भूत लग गया वो भी उनका ही साथ देने लगा ।
सोचा चलो कोई बात नहीं । बेटा तो बड़ा हो ही गया था और एक सुदर्शन नवयुवक बन गया था। नौकरी भी अच्छी लग गयी थी। सोचा ब्याह कर दूँगी, बहू आएगी तो समय सुधर जाएगा । लेकिन ब्याह  की बात पक्की भी हो गई मुझसे पूछा भी न गया । यहाँ तक कि उसके घर वालों को मुझसे मिलवाया भी न गया अब ये मेरे अपमान की  इंतेहा हो चली थी ।" थोड़ा रुककर एक गहरी सांस ली फिर बोलना शुरू किया । विवाह के निमंत्रण  भी बांटे  गए पर मुझे एक बार भी शामिल न किया गया । विवाह का दिन भी आ गया मै बड़े चाव से दौड़ कर सब कम खुद ही करने लगी कि मेरा बेटा है इसके ब्याह मे मै नहीं  काम करूंगी तो कौन करेगा । बारात गई पर मुझे किसी ने न पूछा । बेटा मिलने भी न आया । मन बहुत आहत हुआ पर बहू का इंतजार करने लगी । बहू आयी स्वागत करने के लिए थाली लेकर दौड़ी आई तो सबने रोक दिया पति ने सबके सामने अपमानित कर बाहर कर दिया । मै बेटे की ओर लपकी  शायद  बेटे के दिल मे कोई जगह बाकी हो । लेकिन बेटे ने मुंह फेर लिया । अब तक सहने की ताकत भी समाप्त हो चली थी एक लक्ष्मी घर आई थी दूसरी निकाल दी गई थी । मै सीधे हरिद्वार चली आई तब से यही हूँ  लोगो सेवा करती हूँ दुखियों की सेवा करती हूँ । मैंने देखा कि भीम गोड़ा मे उनकी छोटी सी कुटिया है। वही बाहर एक स्टोव रख कर वे चाय वगैरह बनाती है और इसी से अपना खर्च निकाल लेती है । मेरे पूछने पर कि -"क्या अब तक आपके पति और बेटे मे से किसी ने आपको खोजने की कोशिश नहीं की ।" वे कहने लगीं कि जिसने हाथ पकड़ा था, उसी ने हाथ पकड़ कर निकाल दिया था। वह क्या खोजेगा । बेटे ने बेसहारा छोड़ दिया था, उसको कहाँ मेरी याद  आती। हाँ एक बार बेटा और बहू आए थे। यहाँ घूमने शहर मे भीड़ बहुत थी, कहीं जगह न मिली थी तब मैंने यहीं ठहरा लिया था । बेटे ने कहा क्या यही आपका घर है । क्या बोलती मै कि कहाँ है मेरा घर ।
उनकी दास्तां काफी दुःख भरी थी। मै सोचती हुई चल दी, कि सही ही तो है एक स्त्री का घर कौन सा होता है माँ बाप का , पति का , बेटे का या फिर कोई नहीं ।  
  रचनाकार: श्रीमति अन्नपूर्णा वाजपेयी
कानपुर, उत्तर प्रदेश 

2 comments:

  1. बहुत ही भावपूर्ण औरसार्थक कहानी.

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
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