इलज़ाम न दो
आरोप निराधार नहीं
सचमुच तटस्थ हो चुकी हूँ
संभावनाओं की सारी गुंजाइश मिटा रही हूँ
जैसे रेत पे ज़िंदगी लिख रही हूँ
मेरी नसों का लहू आग में लिपटा पड़ा है
पर मैं बेचैन नहीं
जाने किस मौसम का इंतज़ार है मुझे?
आग के राख में बदल जाने का
या बची संवेदनाओं से
प्रस्फुटित कविता का
कराहती हुई
इंसानी हदों से दूर चली जाने का
शायद इंतज़ार है
उस मौसम का जब
धरती के गर्भ की रासायनिक प्रक्रिया
मेरे मन में होने लगे,
तब न रोकना मुझे न टोकना
क्या मालूम
राख में कुछ चिंगारी शेष हो
जो तुम्हारे जुनून की हदों से वाकिफ हो
और ज्वालामुखी-सी फट पड़े
क्या मालूम मुझ पर थोपी गई लाँछन की तहरीर
बदल दे तेरे हाथों की लकीर
बेहतर है
मेरी तटस्थता को इलज़ाम न दो
मेरी ख़ामोशी को आवाज़ न दो
एक बार
अपने गिरेबान में झाँक लो !
रचनाकार: सुश्री जेन्नी शबनम
नई दिल्ली
achchha laga
ReplyDeleteतुमने पढ़ा ही नहीं अपने हठी तहरीरों को , आरोपों का मर्सिया पढने से तुम्हें फुर्सत ही नहीं मिली
ReplyDeletebaht sarthak prayas..
ReplyDeleteadvitiy hai bahut achee rachanaa
ReplyDeleteसच तो यही है शबनम जी की हम सभी को उस लम्हे का इन्तजार है , जब कुछ नए का , कुछ नूतन का , जन्म हो ... बहुत अच्छी अभिव्यक्ति ... बहुत सारी भावनाए बस अब मुक्तता का इन्तजार कर रही है .. ये बहुत मुश्किल था , लेकिन आपकी कविता ने कर दिखाया . दिल से बधाई स्वीकार करे...!!
ReplyDeleteविजय
प्रस्तुत रचना के हर शब्द अपने आप में दहकते गोले हैं , जिन्हें पढ़कर ,समझकर , धधकती ज्वालामुखी सी मानसिक संवेदों को , आसानी से समझा जा सकता है | जेन्नी शबनम जी आपकी भावना के हर शब्द टंकार कर रही उस सुसुप्त चेतना को जिसे जगाने के लिए ये पंक्तियाँ पर्याप्त हैं " एक बार अपने गिरेबान में झांक लो"
ReplyDeleteभीतर पनपता आक्रोश जिसे सहते सहते,मन में विद्रोह का ज्वालामुखी
ReplyDeleteफूटना चाहता है पर अपनेपन की महीन लकीर इस ज्वालामुखी को बांध
कर रखी है----चेतावनी देती कविता
शबनम जी यह ज्वालामुखी अवश्य फूटेगा,आपको सार्थक रचना की बधाई
वाह, बहुत सलीके से बात कही...पसंद आई अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteहर एक दिन में धधकती जवालामुखी किसी न किसी दिन भात कर ऐसा विस्फोट करेगी कि कहने को कुछ न रह जायेगी. इसा धधकती हुई ज्वालामुखी को व्यक्त करने के लिए आभार !
ReplyDeleteअच्छी रचना है
ReplyDeleteबहुत सुंदर
तटस्थता है मगर तक़लीफ़ है, ग़ुबार है, कहीं उलझन भी है.......जब धुंआ हटेगा तो आग़ का रंग-ढंग समझ में आएगा...
ReplyDeleteयानि बेचैनी और कशमकश कविता में क्या ख़ूब व्यक्त हुई है!
बहुत सुन्दर.....
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति जेन्नी जी...
शुभकामनाएं.
अनु
bahut achha likha hai, soch mein gehrai liye hue
ReplyDeleteshubhkamnayen
लाज़वाब....
ReplyDeletejenni ji sunder bhavon se saji uttam kavita hai aapki
ReplyDeletebahut bahuut badhai
rachana
वाह, अच्छी रचना जेन्नी शबनम जी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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ReplyDeleteजेनी जी,
एक शानदार कविता के लिये बहुत बहुत बधाइयां। वाकई बहुत सुंदर अभिव्यक्ति... सीधे मन से उपजी... मन तक पहुंचती...
लिखती रहिये,
संकल्प
आपकी कवितायें कहीं अन्दर तक पैठ कर जाती हैं जेनी जी .
ReplyDeleteबहुत खुब जीनी जी, आप खुबसुरत लिखती है
ReplyDeleteजंग जरूरी है, जायज है, जब तलवार नहीं कागज है
आप हमे पढते ही नहीं, इस बहाने पढलो सही
मै बिचैन क्यो हूं,
क्यो की मेरे शब्दो को चैन नहीं
मै खुश क्यूं हूं क्यो की,
मेरे शुभ शब्दो में कहीं रैन नहीं ... "प्यास"
ज्वालामुखी को न भड़काओ ..शांत समंदर में तूफ़ान न लाओ
ReplyDeleteमुझे चुप ही रहने दो .......कुछ सुनने की जिद्द न दिखाओ ..........
जेनी मन के भावों की सुंदर अभिव्यक्ति
ऊद्द्वेलित करते शब्द ....बेहतरीन रचना ....जेन्नी जी ...
ReplyDeleteसशक्त अभिव्यक्ति !
ReplyDeletebhtreen rachna
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