नारी तुम स्वतंत्र हो
सुबह से शाम तक
चक्कर घिन्नी सी घूमती
कभी आँगन से गुसल तक
कभी चौके से देहरी तक
कभी हाथ में जुराब लिए
कभी आटे में हाथ सने
कभी चाय की पुकार
कभी कमरे की बुहार
कभी बस की रफ़्तार
बॉस के तानो की बौछार
सुबह से शाम तक
चक्कर घिन्नी सी घूमती
कभी माँ का दायरा
कभी पति का हक
कभी बहु का कर्तव्य
कभी दफ्तर का लक
सुबह से शाम तक
चक्कर घिन्नी सी घूमती
नारी !!!तुम कितनी भी
आधुनिक हो जाओ
क्या तुम स्वतंत्र हो ?
अपने ही बनाये
दायरों से !
संस्कारों से !!
व्यवहारों से !!
लोकाचारो से !!
रचनाकार: सुश्री नीलिमा शर्मा
देहरादून, उत्तराखंड
बहुत सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्तिनसीब सभ्रवाल से प्रेरणा लें भारत से पलायन करने वाले
ReplyDeleteआप भी जाने मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?
बहुत बहुत शुक्रिया Shalini jee
Deleteबहुत बहुत बधाई नीलिमा जी....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
अनु
हार्दिक आभार अनु जी
Deleteरचनात्मकता से भरी अंतःकरण को छू लेने वाली
ReplyDeleteबेहद संजीदा कृति... बधाई नीलिमा जी |
सभी लेखकों एवं ब्लॉग के संपादक को हार्दिक शुभकामनाएं|
शुक्रिया प्रज्ञा बहुगुणा
Deleteबधाई नीलिमा जी , बहुत खूब लिखा आपने :)
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद अरुणा जी
Deletebahut achchi rachna hai ...neelemaji
ReplyDeleteसराहनीय शब्दों के लिय आभार आपका शांति जी
DeleteWah, bahut sundar rachna. Aur samsamayik bhi...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद राहुल
Deleteमेरी रचना को आपने मान दिया उसके लिए बहुत बहुत आभार आपका वंदना जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना सखी .. बधाई
ReplyDeleteशुक्रिया मीना .
Deleteumdaah....
Deleteshukriya Mukesh ji
Deleteसही कहा आपने कि ये दायरे नारी के ही बनाये हुए हैं। इस लिए "स्वतंत्रता" कहना एक मायने में उचित नहीं होगा क्योंकि परिवार पोषण और आने वाली पीढ़ी को नैतिकता और सदाचार का अभिप्राय समझाने में जितना नारी का योगदान है और ये सब उसके अस्तित्व से इस तरह जुड़ा हुआ है कि अपने इन जिम्मेदारियों को बोझ समझना या इनसे स्वतंत्रता पाने की चेष्टा नारी या इस सारे समाज के लिए अकल्पनीय है।
ReplyDeleteshukriya Rahul jee
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletekya hua mystic mohiny jee
Deleteबहुत सुन्दर रचना ...........!
ReplyDeleteThank u so much Sara ji
DeleteBahut hi sunder, Neelima Ji. Kitna sahi likha hai aapne. Mujhe aapke bindas aur bebaak khayal bahut bhaate hain, kyu'n ki unmein ik sachaayi hai. Aisa hi likhte rahiye.
ReplyDeletethank u ... main to sach likhti hun par apne dayre mei rahkar .bahut bahut shukriya ke aapko achcha lagta hain :)
Deleteहृदयस्पर्शी भाव .......
ReplyDeleteShukriya monika ji
Deleteहृदयस्पर्शी भाव .......
ReplyDeleteThank you so much aapka
DeleteThank u so much Divya
ReplyDeleteThank you So Much Divya
ReplyDeletethank u so much
ReplyDeleteक्या तुम स्वतंत्र हो
ReplyDeleteअपने ही बनाये
दायरों से !
संस्कारों से !!
व्यवहारों से !!
लोकाचारों से !!!
...कमसे कम एक कर्तव्य निष्ठ नारी तो बिलकुल नहीं ...बहुत सही चित्रण ..एक खूंटे से बंधी नारी ..अपनी ही धुरी पर सतत घूमती ...अपने कर्तव्यों का यथाशक्ति निर्वहन करती हुई .....फिर भी सब को खुश करने में असमर्थ .....!!!!!
bahut bahut dhanyad saras aapka
DeleteBAHUT hi khubsurat aur naari ko jhakjhorti hui rachna,... bahut bahut badhaiyan ,..tahe dil se,..:)
ReplyDeleteThank you so much preeti aapka
DeleteBAHUT hi khubsurat aur naari ko jhakjhorti hui rachna,... bahut bahut badhaiyan ,..tahe dil se,..:)
ReplyDeleteThank you so much preeti aapka
Deletebahut Umdaah Neelima...HAMESHA KI TARAH..:)
ReplyDeleteThank u Navneet
DeleteThank you so much Navneet
Deleteनारी मन और स्वभाव का सटीक चित्रण.... शुभकामनायें
ReplyDeleteThank you so much Pallavi
Deleteबिन नारी के धर सदा...
ReplyDeleteलगता है वीरान...
नारी धर में यँ बसे...
जैसे तन में प्राण...
नारी से जीवन शुरू..
नारी के ही संग...
हर रिश्ते में है रंगी...
इन्द धनुष के रंग...
माँ है, बेटी, बहन भी...
पत्नी, बहू या प्रेयसी..
मन को वो बान्धे सदा..
रिश्ता कोई भी रहा..
नारी करती है रही..
सेवा सब नि:स्वार्थ...
बदले की न चाह है..
लगी रहे दिन रात..
नारी को मेरा नमन..
जो जीवन की डोर..
रहती है हर साँस में..
चहूँ दिशा, हर ओर..!!!
नीलिमा जी...आपने नारी के हर रूप के दर्शन करा दिये...ऐसा लगा जैसे धर पहुँच गये हों..
बहुत सुन्दर कविता...
सादर..
दीपक...
Thank you so much Deepak ji aapki lines bhee bahut achchi hain shukriya
Deleteहाँ यही तो रूप है नारी का , पता नहीं कैसे उसके स्वरूप को सिर्फ कुछ नारियों को देख कर छवि धूमिल करने लग जाते है . इसमें तो मुझे अपनी ही छवि दिखलाई पड़ गयी क्योंकि कई बार जल्दी से नाश्ता तैयार करके अगर देर हो रही है तो कभी कभी ऑफिस में जाकर देखती थी कि हाथ में आटा लगा हुआ है और बाल जल्दी से उलटे सीधे झाड़ कर चल देती थी . यही असली रूप है। .
ReplyDeleteहाँ यही तो रूप है नारी का , पता नहीं कैसे उसके स्वरूप को सिर्फ कुछ नारियों को देख कर छवि धूमिल करने लग जाते है . इसमें तो मुझे अपनी ही छवि दिखलाई पड़ गयी क्योंकि कई बार जल्दी से नाश्ता तैयार करके अगर देर हो रही है तो कभी कभी ऑफिस में जाकर देखती थी कि हाथ में आटा लगा हुआ है और बाल जल्दी से उलटे सीधे झाड़ कर चल देती थी . यही असली रूप है। .
ReplyDeleteअद्भुत! आपके शब्दों का ठहराव समय को भी मोड़ देने में सक्षम है। शुभकामनाएं।.
ReplyDeletenari ko mera naman
ReplyDeleteरचना को पसंद करने के लिय आपका तहे दिल से शुक्रिया
ReplyDeleteRekha ji bahut bahut shukriya . kai bar yaha aapko dhanywad likha parantu dekhai nhi de raha hain
ReplyDeleteRekha ji bahut bahut shukriya . kai bar yaha aapko dhanywad likha parantu dekhai nhi de raha hain
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई नीलिमा ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
thnk u Neelu
Deleteबहुत बहुत बधाई नीलिमा....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना..
स्वतन्त्रता की एक सीमा होती है । उसके अंदर स्वतन्त्रता का उपभोग करने वाला दुविधाओं आशंकाओं व हननता से मुक्त यथार्थ में स्वतंत्र होने का अनुभव करता है । कर्तव्य की आवाज तो न चाहकर भी सुनाई पड़ जाती है ।
ReplyDelete