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Friday, November 8, 2013

कहानी: दिए वाली


    ड़क के किनारे बैठी उस 9-10 साल की लड़की पर मेरी निगाह जैसे ही पड़ी वह जोर से बोली, "आइये बाबू जी दिए ले लीजिये, मोमबत्ती ले लीजिये"। पर मेरे पूरे घर में बल्ब की झालर लगती है इसलिए मैं खरीदने के मूड में नहीं था और उसकी बात को अनसुना कर जैसे ही पैर बढाया वह फिर बोली, "ले लीजिये बाबू जी" अबकी बार उसके स्वर में याचना थी। पर तब तक मेरी निगाह बगल से लगी झालरों की एक बड़ी दुकान पर चली गयी मैंने दुकानदार से झालर का दाम पुछा इस से पहले वह कुछ जबाब देता पीछे से उस लड़की की आवाज फिर से आयी "ले लीजिये बाबू जी आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा पर मेरी दीवाली मन जायेगी" इस बार उसके स्वर में हताशा और निराशा थी। मुझे पता था कि उन दियों की मुझे कोई जरुरत नहीं है पर उसकी बात मुझे छू गयी थी इसलिए मैंने पलट कर पूछा, "कितने के है?" इतनी सी बात पर उस लड़की में पता नहीं कितनी ऊर्जा आ गयी और लगा जैसे उसे नया जीवन मिल गया हो। " 10 रुपये के 25 हैं आपको  30 दे दूँगी। थोड़े से बचे हैं आप  सब ले लो। मैं भी घर जाकर त्यौहार की तैयारी करूँ।" एक ही साँस में उसने अपनी बात कह डाली ।  मैं तो एक टक उसकी खुशी को निहार रहा था। जब मैंने कोई जबाब नहीं दिया तो उसने फिर पूछा, " कितने दे दूं साहब?" पर मुझे अपनी तरफ देखते वो झेंप सी गयी। भेष से वो  जरूर ग्रामीण लग रही थी, पर नाक नक्श और व्यवहार पढ़े-लिखे सभ्य  शहरी लोगों जैसा था। मैंने पूछा, " स्कूल नहीं जाती?" तो वो चहककर बोली, " जाती हूँ साहब। गाँव के प्राइमरी में, पर अभी त्यौहार है सो......"कहकर वो चुप हो गयी शायद उसको कुछ अपराध बोध सा हो गया था, इसलिए नजरें झुकाकर बोली, "कितनी दे दूं? " "कितनी हैं? " मैंने पूछा। वो वोली "130।" "कितने रुपये हुए?" मैंने फिर पुछा। उसने अपनी अंगुलियो पर हिसाब लगाया और बोली "40 रुपये दे दो और 10 दिए फ्री ले जाओ।" मैंने मन में सोचा है तो होशियार फिर 50 का नोट उसे दिया उसने 10 रुपये वापस किये तो मैंने कहा रख लो पर वो तुनककर बोली,  "नहीं-नहीं साहब माँ कहती है, कि भीख नहीं लेनी चाहिए।" मुझे अपने पर शर्म आयी और मैंने पैसे वापस ले लिए जब तक वो दिए पैक करे मैंने पूछा, "माँ क्या करती है?" माँ तो भगवान के घर चली गयी। पिछले साल मेरा छोटा भाई पटाखे के लिए बापू से जिद करने लगा पर बापू के पास पैसे नहीं थे क्यूंकि वो सब माँ के इलाज में लग गए। सो बापू ने उसकी पिटाई कर दी। इसलिए मैंने सोचा कि दिए बेचकर कुछ पैसे मिल जायेगे तो  मैं अपने छोटू के साथ दिवाली मना लूँगी वो छोटा है तो समझता नहीं है।ये लीजिये आपके दिए।" मैं हैरान था उसकी बात सुनकर। थैली हाथ में पकड़ते हुए मैंने पुछा, "क्या नाम है तुम्हारा?" वो हँसते हुए बोली, "दिए वाली।" मैंने बाज़ार से कुछ और खरीददारी की पर मेरा मन नहीं लगा। दिए घर लाकर दिए तो पत्नी झल्लाकर बडबडाने लगी, "ये क्या हैं? फ्री बिक रहे थे क्या? अब इनके लिए 1लीटर तेल कहाँ से आएगा? बत्त्तियां अलग से बनाओ सो अलग। बेवजह परेशानी बढ़ाते रहते हो। जाने क्यूँ आता है यह त्यौहार?" " मैंने धीरे से कहा, "दिए वाली के लिए ही आता है ये त्यौहार।" और बोझिल मन लिए लेट गया बिस्तर पर जाकर। आज 20 साल बाद भी जब दीवाली आती है तो मेरी नजरे बाजार में उस दिए वाली को ही खोजती रहती हैं।

अवनीन्द्र जादौन
इटावा, उत्तर प्रदेश 

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!