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Monday, November 11, 2013

ख़लिश

दरवाज़ों पर होती हैं दस्तकें बहुत
पर दिल मे वो ताबीर नहीं होती,
लरज़ते हैं लब चूड़ियों की खनक के साथ
पर बज़्मे-याराँ मे वो ख़लिश नहीं होती |

रोज़ने-दीवार से आती है शुआए-मेहर
पर उनके आने की ख़बर नहीं होती,
चांदनी रात आ-आ के गुजरती है रोज़
पर साए से उनके आँखें चार नहीं होती |

खिले हैं कँवलइधर-उधर , यहाँ-वहाँ
पर लुत्फे-निगाहें-नाज़ नहीं होती
आते हैं भँवरें गुलों की बज़्मे-जहाँ मे
पर उनके रुखसारों सी आग नहीं होती |  

रविश 'रवि'
फरीदाबाद 

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
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