बचपन बीता,बड़ा हुआ .
जिसके आँचल तले
सुनहरे स्वप्न में खोया
न जाने कितनी की शैतानियाँ,
न जाने कैसे -कैसे माँ ने
मुझे पाल-पोस कर ,
अपने खून से सींच-सींच कर
इस लायक बनाया कि मैं,
उसकी बुढ़ापे कि लाठी बनूँ ,
किन्तु मैंने स्वार्थी बन,
प्रिये के कहने पर
उस बूढी माँ को ठुकराकर
छोड़ दिया तिल-तिल तरसने को
और खुद वासना में हो लिप्त ,
अपनी प्रिये कि गोद में ,
उसकी सुनहरी जुल्फों से
खेलता रहा ,उलझता रहा .
उधर वह बूढी माँ
हर किसी के आगे
गिड़गिड़ाती हाथ पसारती.
किन्तु मैं इस सबसे
बेखबर केवल अपनी प्रिये
के ख़्वाबों में खो उसकी हर
तम्मना पूरी करता रहा ,
आह आज मैं
जीवन के किस मोड़ पर आ गया
मेरी सारी शिराएँ शिथिल पड़ गई हैं
आँखों के समक्ष घोर अन्धकार
चमड़ी का रंग लुप्त हो गया हे
कोई भी अब मेरे नजदीक
आने से घबराता है
मैं एक टक हो
आने से घबराता है
मैं एक टक हो
दीवार पर टंगी तस्वीर निहारता
और सिसकता अपने कर्मों पर
बेचारी बूढी माँ ,इसी तरह
न जाने कितनी तकलीफों
का सामना कर -कर के
इस दुनिया से चल बसी होगी ,
मैं और मेरा घर
केवल रह गया सूना
शमशान के सामान
यही है, हाँ यही है
मेरे अत्याचारों और
दुष्कर्मों का फल .
संजय गिरी
नई दिल्ली
चित्र गूगल से साभार
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