मरीजों की लम्बी कतार लगी थी। रजत भी अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा था। तीन दिन से उसका सर दर्द से फटा जा रहा था। जब घरेलू उपचार और स्वचिकित्सा से लाभ न हुआ, तो मजबूरन आना ही पड़ा डॉक्टर की शरण में।
तीसरे नम्बर पर उसकी बारी थी , कि तभी उसे डॉक्टर के चैकअप रूम से कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। डॉ० सहगल, जो कि बहुत ही धीमी आवाज़ में बोलने के लिए प्रसिद्द था, शायद मरीज़ पर चिल्ला रहा था, "क्या समझ रखा है इसे ? कोई खैरात बंट रही है क्या ? देखते नहीं, बाहर साफ-साफ लिखा है, कि एक विज़िट की फीस पच्चीस रूपये ?"
तब तक कम्पाऊँडर ने केबिन का दरवाज़ा खोल दिया था। आवाज़ें और भी स्पष्ट हो गयीं थीं। ......"डॉ० साब ! मेरे पास कुल चौबीस ही रूपये हैं ! अभी ले लो, मैं कल एक रुपया जरुर दे जाऊंगा !".... वेश भूषा से दीन - हीन और बेहद कमज़ोर दिखने वाला वह मरीज़ भरसक मिन्नतें कर रहा था, पर डॉ० के इशारे पर कम्पाउंडर ने बड़ी बेरहमी से उसे लगभग धक्के मारते हुए बाहर का रास्ता दिखा दिया। अगला मरीज़ अंदर चला गया।
रजत अवाक सा यह दृश्य देखता रह गया। उसे विश्वास नहीं हो रहा था, कि जो डॉ० पढ़ाई पूरी करने पर लोगों की जीवन रक्षा का प्रण लेते हैं और जिन्हें भगवान का दर्जा दिया जाता है, वह मात्र एक रूपये के लिए ऐसी हरकत भी कर सकते हैं। जाने उसे क्या सूझी, उसने झट से उस गिरे हुए मरीज़ को उठाया, और धड़धड़ाते हुए डॉ० के केबिन का दरवाज़ा खोलकर अंदर गया और बेहद रुखाई के साथ डॉ० के सामने एक रुपया फेंकते हुए बोला, "ये लीजिये आपका एक रुपया! आपकी फीस पूरी हुई ? अब इसका इलाज कर दीजिये।"
डॉ० इस अप्रत्याशित घटना के लिए तैयार न था। फटी आँखों से कभी रजत, तो कभी उस एक रूपये को देखता रहा। रजत कुछ बड़बडाता हुआ बड़ी तेज़ी से मुडकर चला गया , और उसके शब्द डॉ० के कानों में गूंजते रहे, "माफ़ कीजिये ! आगे से जरूरत पड़ने पर मैं आपके पास न आ सकूंगा इलाज के लिए…….”।
रचना 'आभा'
मालवीय नगर, नई दिल्ली
चित्र गूगल से साभार
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सुमित प्रताप सिंह,
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