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Sunday, June 23, 2013

कविता: वसीहत चाँद की


चाँद ने अपनी 
रातों की बादशाहत का 
विस्तार करना चाहा
उसने बनाई एक वसीयत 
जिसमें एक मटरगश्त को 
आधी सल्तनत दे दी गई 
जिसे रात भर जागने और 
भटकने की लत हो और 
जो बुन सके सौम्यता की 
इतनी बड़ी चादर 
जिससे पूरी कायनात पर 
जिल्द चढ़ाया जा सके 
इस तरह मेरे हिस्से में 
आई ज़मीन और 
उसके पास रहा आसमान  
रातों को ये दोनों सुलतान 
भटकते हैं अपनी-अपनी 
रियाया की तपिश 
बटोरने के लिए 
जिसे ढ़ोकर उतर जाते हैं 
क्षितिज की गहरी घाटियों में 

सुशील कुमार 


दिल्ली। 

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