किसी गली या फिर किसी मोड़ पर कोई न कोई बिलकुल खाली इंसान अर्थात ठलुआ भैया बैठा मिल ही जाता है। उसके व्यक्तित्व को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है, कि वह नैतिकता नामक अवगुण से कई कोस की दूरी बनाये रखना ही अपना परम कर्तव्य समझता है। ऐसा भी हो सकता है कि नैतिकता को उसने कभी देखा और सुना ही न हो। वैसे भी नैतिकता के पाठ को विद्यालयों की पाठ्य पुस्तकों से सरकारी वरदहस्त प्राप्त कुछ महानुभावों ने धरती के जाने किस कोने में ले जाकर छोड़ दिया है। जिसके परिणामस्वरुप बहुत प्रयास करने बाद भी नैतिकता से लोगों से फिर से मिलने का सपना साकार नहीं हो पा रहा है। इसका फल यह मिला कि हमारी युवा पीढ़ी के कुछ पथ भ्रष्टों के मन - मस्तिष्क से नैतिकता नामक अवगुण सदैव के लिए तड़ीपार हो गया। अब युवा बड़े-बुजुर्गों के पास बैठकर जीवन के तजुर्बे लेने की बजाय साइबर कैफ़े में जाकर या फिर अँधेरे कमरे में गुपचुप रूप से रंग-बिरंगी फ़िल्में देखने में मस्त रहते हैं और इनके मस्तिष्क में रंग-बिरंगी फिल्मों का ही संसार बन जाता है तथा इनका मस्तिष्क आम जीवन में भी रंग-बिरंगा करने को उत्साहित हो उठता है और उनके रंग-बिरंगा करने की इच्छा का खामियाजा भुगतना पड़ता है बेचारी अबलाओं को। ग्राउंड में जाकर दौड़ने-भागने या फिर खेलने-कूदने की बजाय ये पौए या अद्धे का भोग लगाकर अश्लील व कानफोड़ू संगीत पर किसी डांस क्लब में थिरकते मिल जायेंगे। शारीरिक श्रम से दूरी और दारुपान करने का फल ये मिलता है कि इनका शारीरिक सौष्ठव इतना बढ़िया हो जाता है कि तेज हवा चलने पर भी इनका बलिष्ठ शरीर किसी पेड़ की जर्जर डाली अथवा क्षीण पत्ते की भांति कांपने लगता है। बहन-बेटियों की इज़्ज़त करने जैसे शब्दों की फालतू शब्दावली इनके लुच्चकोश अर्थात शब्दकोश में दीया लेकर खोजने पर भी मिलनी असंभव है और ये अपनी माँ, बहन व बेटियों को भी अपनी कामुक दृष्टि के आगोश में लेना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। ये तरह-तरह उपाय या साधन ढूँढ़ते हैं जिससे नारी जाति को शर्मशार किया जा सके और इसी पुण्य प्रयास में ये अपने दिन और रात व्यतीत करते हैं। इस तरह की प्रजाति के स्रोतहीन व साधनहीन जीवों के पास एकमात्र सहारा होता है अपने गली-मोहल्ले के किसी कोने में उल्लू आसन का प्रयोग करते हुए वहाँ से आती और जाती हुई लड़कियों व महिलाओं को एक टक होकर देखना और तब तक देखते रहना जब तक कि वे इनकी आँखों के मारक क्षेत्र से बाहर न हो जाएँ। इन्हें कितना भी समझाओ अथवा निठल्ले बैठना छोड़कर किसी प्रगति के कार्य में लगने के लिए प्रेरित करो किन्तु इनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन्हें समझाना एक प्रकार से भैंस के आगे बीन बजाने के समान ही होता है। और किसी दिन कोई लड़की तंग आकर इनसे पूछ लेती है "भैया आँखों से घर तक छोड़के आओगे?" तो या तो ये झेंपकर मुस्कुरा देते हैं या फिर अपनी बहादुरी दिखाते हुए वहाँ से नौ दो ग्यारह हो लेते हैं।
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