*चित्र गूगल से साभार*
स्त्री झाँकती है नदी में
निहारती है अपना चेहरा
सँवारती है माथे की टिकुली, माँग का सिन्दूर
होठों की लाली, हाथों की चूड़ियाँ
भर जाती है रौब से
माँगती है आशीष नदी से
सदा बनी रहे सुहागिन
अपने अन्तिम समय
अपने सागर के हाथों ही
विलीन हो
उसका समूचा अस्तित्व
इस नदी में
स्त्री माँगती है नदी से
अनवरत चलने का गुण
पार करना चाहती है
तमाम बाधाओं को
पहुँचना चाहती है
अपने गन्तव्य तक
स्त्री माँगती है नदी से
सभ्यता के गुण
वो सभ्यता
जो उसके किनारे
जन्मी, पली, बढ़ी और जीवित रही
स्त्री बसा लेना चाहती है
समूचा का समूचा संसार नदी का
अपने गहरे भीतर
जलाती है दीप आस्था के
नदी में प्रवाहित कर
रचनाकार- सुश्री ममता किरण
परिचय- हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं – हंस, पूर्वग्रह, इंडिया टुडे (स्त्री), जनसत्ता साहित्य विशेषांक, कादम्बिनी, साहित्य अमृत, गगनांचल, समाज कल्याण, लोकायत, इंडिया न्यूज़, अमर उजाला, नई दुनिया, अक्षरम संगोष्ठी, अविराम आदि में कविताएं प्रकाशित। सैकड़ों लेख, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षाएं आदि समाचार पत्रों में प्रकाशित। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नेशनल ओपन स्कूल आदि के लिए आलेख लेखन। आकाशवाणी –दूरदर्शन के लिए डाक्यूमेंट्री लेखन।
बहुत सुंदर रचना ...सुंदर भावनाओं से युक्त ....!!
ReplyDeleteस्त्री व नदी की भावनात्मक एकता को बहुत ही सुंदर ढ़ग से अभिव्यक्ति दी हॆ आपने मामता जीIअति सुन्दर!
ReplyDeletebahut hi sunder rachna Mamta ji.
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