मैंने महसूस किया है हर मोड़ पर कि
मेरी मुसकुराहट, मेरी हंसी और उसमें खिलते अनगिनत गुलाबों की पौध
तुम्हारी रोपी हुई ही तो है
मेरी धमनियों में दौड़ता रक्त मेरी आँखों की चमक
सब तुम्हारी नफासत से सजाई इबारतें ही तो है
और मेरी हर तक़लीफ़ हर दर्द जैसे तुम्हारी अपनी तकलीफ अपनी नाकामी....
मैंने डूबकर देखा है खुद में और अक्सर महसूस किया है कि तुम....
जैसे घुली हो मेरी सांस में मेरी आवाज़ में, मुझमें पूरी तरह.
मैं तुमसे कुछ कहूँ या न कहूँ तुम सब जानती हो
क्योंकि तुम मेरा प्रतिबिम्ब नहीं मेरी मां हो ...
लेखिका- विभा नायक
वास्तव में माँ सिर्फ और सिर्फ माँ होती है.
ReplyDeleteसुन्दर कविता...