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Friday, January 1, 2016

कविता : मन का बादशाह


नहीं सल्तनत पास तो क्या 
मन ही है मिलकियत हमारी 
और मन की इसी सल्तनत के 
हम हैं बेताज बादशाह
नहीं किसी का बुरा यहाँ
सोचा और किया जाता है
अपनी इस सल्तनत में
न ही किसी का दिल दुखाने की
मिलती है जरा भी इजाजत
यहाँ इश्क़, मोहब्बत, अपनेपन की
साजिश रोज ही चलती हैं
यहाँ आता है जो भी
वो खुश होकर ही जाता है
और कोई दिलवाला तो
इसमें ही आ जाता है बस
यहाँ आने पर नहीं रोक
और लौटने का न होता
फरमान कोई भी
जिसको आना है तो
वो आए पूरे दिल से
करने को इस्तेकबाल
खड़ा ये मन का बादशाह।

लेखक : सुमित प्रताप सिंह 

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