इन दिनों चहुँ ओर चर्चा है कि फलां महोदय फलां कारण से अपना सम्मान लौटा रहे हैं। सच कहूँ यह खबर सुनकर दिल में टीस सी उठती है कि काश हमें भी कोई ऐसा सम्मान मिलता जिसे लौटाते हुए हम भी इधर-उधर हल्ला-गुल्ला मचाते फिरते कि भैया हम तो सम्मान लौटा रहे हैं और जिस सम्मान से लिया था उसी सम्मान से वापस भी लौटा भी रहे हैं। पर क्या करें हमें अभी तक कोई ऐसा बड़ा सम्मान पाने का सुअवसर ही नहीं मिला जिसे पाकर हम भी अपना सीना चौड़ा करके घूमते। वैसे ऐसी बात नहीं है कि हमें अभी तक कोई सम्मान नहीं मिला। सम्मान तो बहुत मिले हैं लेकिन सरकारी सम्मान के आगे उन्हें सम्मान कहने में भी शर्म आती है। अब ये ससुरी शर्म चाहे कितनी भी आये पर बेशर्म बनके हमें ये स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि न तो हम किसी साहित्यिक खानदान से हैं, जो साहित्यिक परिवार की कृपा हम पर बरसे, न ही किसी ऐसे उच्च पद पर विराजमान हैं कि सम्मान हमारे चरण छूने में भी सम्मान समझें और न ही देश के किसी प्रदेश में अपनी जातीय बंधुओं की सरकार है जो और कुछ न देख पर जाति की शर्म करके ही दो-चार सरकारी सम्मान हमें ससम्मान प्रदान कर दे। अच्छा इन सब कारणों के अलावा अपनी कम उम्र भी धोखा दे जाती है। हालाँकि लिखते हुए एक दशक बीत गया लेकिन साहित्यिक खाँचे में अपनी उम्र फिट नहीं होती । यहाँ सम्मान भी तब मिलने का मन बनाता है जब लेखक जीवन के सभी कर्मों से निच्चू हो लेता है।
उम्र बीत जाने पर सम्मान पानेवालों को देखकर एक बार को ख्याल आता है कि क्या युवावस्था में वो अच्छा नहीं लिखते थे जो उस समय उन्हें सम्मान से दूर रखा गया या वृद्धावस्था में वो इतना श्रेष्ठ लिखने लगे जो उन्हें सम्मान देकर अच्छे लेखक की मोहर लगा दी गयी। कहीं इस उम्र में आकर उन्हें इसलिए तो सम्मानित नहीं किया गया कि भैया ये लो सम्मान और अब अपने लेखन का दि एन्ड कर डालो। सम्मान देनेवाले माननीय महोदय ये क्यों नहीं सोचते कि सम्मान की जरुरत वृद्धावस्था से अधिक युवावस्था में होती है। यदि युवावस्था में सम्मान मिले तो बेचारा युवा लेखक अपनी पुस्तकों के प्रकाशन हेतु प्रकाशकों को चढ़ावा समय से चढ़ा पाएगा और निरंतर उत्साह पाकर उसका मस्तिष्क नित नई रचनाओं का सृजन करता रहेगा। और क्या मालूम उसके निरंतर सृजन के परिणामस्वरूप किसी ऐसी रचना की उत्पत्ति उसके मस्तिष्क में हो जाये जो साहित्य का गौरव बढ़ाने का काम करे। पर युवा लेखक की उम्र उत्साह को पाने के लिए उसके पीछे-पीछे भागते हुए ही बीत जाती है।
माना कि युवा से वृद्ध होने तक हम लेखकों की सम्मान प्राप्ति हेतु दौड़ निश्चित है, फिर भी इस लालची मन में ये लालच कभी भी ख़त्म नहीं होता कि हमें भी ऐसा कोई सम्मान मिले कि वापस लौटाते हुए भी हम सम्मानित अनुभव करें। वैसे भी हम सरकारी सेवक हैं और कम से कम ये बहाना तो चलना ही चाहिए कि सरकारी सेवा करते हुए सरकारी सम्मान प्राप्त करना हमारा भी अधिकार है। अरे भैया कब तक प्राइवेट सम्मानों से स्वयं को तुष्ट करते रहने को विवश होता रहना पड़ेगा? अब प्राइवेट सम्मानों को लौटाने से कोई वाहवाही भी तो नहीं होती। मजा तो तभी आए जब लेखकीय संसार में गुमनामी में हम खोये हुए हों और फलां आदमी के लिए फलां सरकारी सम्मान फलां दिन को फलां चमचे या चमची के हाथों फलां अकादमी में ससम्मान लौटाएँ और फिर से लेखकीय संसार में सितारा बनके चमक जाएँ। सरकारी सम्मानों से विनम्र निवेदन है कि उन्हें प्रदान करनेवालों तक हमारी करुण पुकार न पहुँच पाए तो आप स्वयं ही हमारी झोली में आ टपकें ताकि हम भी आपको लौटाकर गौरव के कुछ पलों के भागीदार बन सकें।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
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