‘न्यूज़’ की अंग्रेज़ी परिभाषा से ‘एन-ई’ नदारत
हैं क्योंकि न्यूज़ (NEWS) की परिभाषा में तो
उत्तर(N),पूर्व(E),पश्चिम(W) और दक्षिण(S) क्षेत्र समाहित हैं. पूर्वोत्तर(NE) के स्थान पर ‘सी’(Central) यानि मध्य भारत ने, खासतौर पर दिल्ली और आस-पास
के क्षेत्रों ने कब्ज़ा कर लिया है. ख़बरों
में देश के इस भूभाग का बोलबाला है. वहीँ, हिंदी में यदि समाचार को परिभाषित किया
जाए तो मौटे तौर पर यही कहा जाता है कि समाचार वह है जो नया,ताज़ा और अनूठा हो
लेकिन जब हम इस परिभाषा की कसौटी पर देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र को कसते हैं तो अंग्रेज़ी
की तरह यह परिभाषा भी खरी नहीं उतरती. दरअसल प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहर से
परिपूर्ण होने के बाद भी इस इलाक़े जब तक देश के राष्ट्रीय और नामी अखबार आ पाते
हैं तब तक उनकी ख़बरें न केवल बासी हो जाती हैं बल्कि उनका नयापन भी ख़त्म हो जाता
है. तमाम सर्वेक्षणों और अध्ययनों से भी यह बात साबित हो चुकी है कि मीडिया
(मुद्रित और इलेक्ट्रानिक) से उत्तर-पूर्व या सामान्य रूप से प्रचलित ‘पूर्वोत्तर’
गायब है.
‘सेवन सिस्टर्स’ के नाम से मशहूर
असम,अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड व त्रिपुरा के सम्बन्ध में
यहाँ यह बताना भी जरुरी है पूर्वोत्तर के ये राज्य सामरिक और देश की सुरक्षा के
लिहाज से अत्यधिक महत्व रखते हैं. इन राज्यों की सीमाएं चीन, बांग्लादेश, म्यांमार
और भूटान जैसे देशों से लगती हैं. चीन और बांग्लादेश के साथ हमारे सम्बन्ध किसी से
छिपे नहीं हैं और म्यांमार में भी भारत विरोधी गतिविधियां बढ़ रही हैं. ऐसा नहीं है
कि इन राज्यों में पाठकों की कोई कमी है या फिर यहाँ के लोगों के पास संचार के
साधनों की बहुतायत है इसलिए वे समाचार पत्र पढना नहीं चाहते. हकीक़त तो यह है कि
यहाँ संचार के साधनों का नितांत अभाव है और बहुसंख्यक आबादी ख़बरों और मनोरंजन के
लिए काफी हद तक आज भी रेडियो पर ही निर्भर हैं. प्रचार-प्रसार और कमाई के लिहाज से
इतनी अनुकूल स्थितियों के बाद भी यहाँ अखबार मालिकों और मीडिया मुगलों की कम दिलचस्पी
समझ से परे है. कुछ स्थानीय समाचार पत्रों को छोड़ दें तो यहाँ से कोई भी कथित तौर
पर राष्ट्रीय या नामी अखबार नहीं निकलता. कई साधन संपन्न मीडिया समूह भी गुवाहाटी
से संस्करण निकालकर पूरे पूर्वोत्तर भारत का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं
वह भी महज दो पृष्ठों में इन सात राज्यों को समेटकर. ज्यादातर नामी अखबार तो कोलकाता
से आगे बढ़ना ही नहीं चाहते और मजबूरीवश पूर्वोत्तर के पाठकों को कोलकाता के
अख़बारों से काम चलाना पड़ता है. इसका परिणाम यह होता है कि संरचनात्मक रूप से कमजोर
इन राज्यों के लोगों को अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा दाम देने के बाद भी
अपने क्षेत्र की नाम मात्र की ख़बरें भी अख़बार के प्रकाशन के एक दिन बाद मिल पाती
हैं. दरअसल यहाँ अधिकतर बड़े अखबार पढने के लिए कम पृष्ठ संख्या के बाद भी एक से दो
रूपये अधिक देने पड़ते हैं. यह बढ़ी हुई कीमत परिवहन लागत के नाम पर वसूल की जाती
है. कई बार तो जनसत्ता, टेलीग्राफ, स्टेट्समैन जैसे अखबार दो दिन बाद एकमुश्त नसीब
होते हैं. यह स्थिति तो उन क्षेत्रों की है जहाँ आवागमन के साधन कुछ हद तक मौजूद
हैं जबकि अन्य इलाक़ों में तो अखबार के कभी कभार ही तब दर्शन हो पाते हैं जब गाँव
का कोई व्यक्ति शहर से वापस जाता है. इसके उलट, यदि हम उत्तर और दक्षिण भारत के
दिल्ली, मुंबई, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, गुजरात तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश
और कर्नाटक जैसे क्षेत्रों को देखें तो यहाँ ज़िला स्तर भी नामी और राष्ट्रीय
समाचार प्रकाशित हो रहे हैं. चिंताजनक बात यह है कि केंद्र सरकार की पूर्वोत्तर
केन्द्रित नीतियों, व्यापक धन और प्रचार के बाद भी सात राज्यों के लाखों पाठक अब
तक अपनी ख़बरों और अपने मीडिया से मोहताज है.
यह तो बात हुई यहाँ या आस-पास से निकलने वाले
समाचार पत्रों की. यदि हम दिल्ली से प्रकाशित कथित राष्ट्रीय अख़बारों में
पूर्वोत्तर के समाचारों की बात करें तो वह राई में सुई ढूंढने के समान है. राष्ट्रीय
मीडिया में दिल्ली में एक बस ख़राब होने या तीन मेट्रो स्टेशन बंद होने जैसी ख़बरें
तो सुर्ख़ियों में नजर आएँगी परन्तु उसी दिन असम में राजधानी जैसी सर्वोत्तम ट्रेन
की बड़ी दुर्घटना की खबर या तो होगी नहीं और यदि हुई भी तो संक्षिप्त ख़बरों में
कहीं शामिल नजर आएगी. न्यूज़ चैनलों के दबाव में उनकी नक़ल पर उतारू समाचार पत्रों
में भी कमोवेश यही स्थिति है. सामान्य समझ की बात है कि मेघालय या मिजोरम के
व्यक्ति को इस बात से क्या मतलब कि दिल्ली की सड़क पर एक बस ख़राब है या आज मेट्रो
के चंद स्टेशन बंद है. उसे तो अपने उन परिजनों की चिंता ज्यादा होगी जो राजधानी
में सवार होकर दिल्ली जा रहे थे. देखा जाए तो खबरों के महत्व के लिहाज से भी
राजधानी के डिब्बों का पटरी से उतरना बड़ी खबर है न कि किसी शहर में एक बस का ख़राब
होना. यह तो महज एक उदाहरण भर है. यदि इस तरह के समाचारों की फेहरिश्त बनायीं जाए
तो शायद जगह कम पड़ जाएगी परन्तु उदाहरणों की संख्या कम नहीं होगी. जाहिर सी
बात है जब मीडिया ही देश के एक बड़े और
सामरिक रूप से महत्वपूर्ण भूभाग को नजरअंदाज़ करेगा तो फिर सरकारी अमले से क्या
उम्मीद की जा सकती है. वास्तव में पूर्वोत्तर वर्षों से इसी बेरुखी का शिकार है और
शायद आने वाले सालों में भी इसी तरह दरकिनार होता रहेगा.
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!