ये रेल की पटरियां....
कभी लगती हैं...
भागती हुई...
और कभी खड़ी हुई....
न है इनका कोई अंत
और न कोई सिरा....
न जाने कौन सा छोर
किस से जा मिला.....
चल रही हैं ये
बस यूँ ही समानांतर.....
कभी न मिलने के लिए....
न जाने कितना बोझ सहती हैं
और उफ़ तक नहीं करती हैं
मुसाफिरों को पहुंचाती हैं
उनके गंतव्यों तक...
मिलाती हैं अपनों को बिछड़ों से....
और
खुद तलाशती रहती हैं
अपनी मंजिलों को.....
ये रेल की पटरियां.......
क्या इन्हें कोई दर्द नहीं होता है ???
क्या इनकी कोई ख्वाइश नहीं होती है ???
पर ये भी जानती हैं....
चलना है इन्हें यूँ ही.....
भागना है इन्हें यूँ ही.....
समानांतर......
कभी न मिलने की टीस के साथ....
कभी न मिलने की सच्चाई के साथ.....
ये रेल की पटरियां.......
रविश 'रवि'
फरीदाबाद
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