सरकारी
स्कूल के बच्चों की शिक्षा के प्रति सरकारी नज़रिया कुछ भी हो सरकारी आंकड़े कुछ भी
कहें पर धरातल पर स्थिति कुछ और ही है। प्रदेश स्तर के वातानुकूलित कमरों में
बैठकर शिक्षा के वास्ताविक माहौल से अनभिज्ञ सरकारी अफसरों और मंत्रियो द्वारा
ग्रामीण बच्चो के लिये बनायी गयी सरकारी योजनायें कागजों पर ही सफलता के झंडे
बुलंद कर रही हैं पर यथार्थ के धरातल पर स्थिति कुछ और ही है। शहरी और निजी
विद्यालयों की तरह शिक्षा देने के लिये बनाये गए सरकारी स्कूल, आंकड़े जुटाने के कार्यालय और अध्यापक शासन की अनेकों महत्वाकांक्षी योजनाओं
को कार्यान्वित करवानेवाला कर्मचारी भर बनकर रह गया है। शिक्षा अधिकार अधिनियम भले
ही शिक्षक को अधिकार और बच्चों को सभी बुनियादी सुविधायें देने की वकालत करता हो
पर स्थिति अब भी वही है जहाँ पहले थी। सरकारी स्कूल केवल और केवल उन बच्चों के लिए
हैं जो या तो पढना नहीं चाहते हैं या फिर उनके माता-पिता उन्हें पढ़ाना नहीं चाहते
हैं। ये स्कूल इन बच्चों के लिए मध्यान्ह भोजन ग्रहण करने की औपचारिकता मात्र हैं।
गंभीर आर्थिक संकट से जूझते इन बच्चों के लिए और इनके अभिभावको के लिए दो जून की
रोटी जुटाना प्रथम प्राथमिकता है, जिसमें बच्चा भी अपने माता-पिता के साथ
जिम्मेदारी उठाता हुआ खेती बाड़ी में, मजदूरी में एवं छोटे भाई बहनों की परवरिश में
अपनी भूमिका अदा करता हुआ कब शिक्षा की मूलधारा से बाहर हो जाता है ये स्कूल के
शिक्षक के अलावा किसी को पता नहीं होता है पर सरकारी आंकड़ो में सब कुछ ठीक दिखाने
की विवशता और सच बताने पर कार्यवाही का डर, बच्चों को नियमित उपस्थिति के लिए किसी सरकारी दबाव और सख्त नियम का न होना, शिक्षा के उपरांत नौकरी की गारंटी ना होना इत्यादि अनेकों कारण न केवल बच्चों और
उनके माता-पिता को बल्कि अध्यापकों को भी उदासीन बना देते हैं और सरकारी विद्यालय
शिक्षा की रस्म अदायगी के केंद्र भर बनकर रह गए हैं। प्रत्येक गाँव में सरकारी
स्कूल खुलने के बाद भी, लगातार निजी स्कूल को मान्यता
देने की पॉलिसी ने सरकारी विद्यालयों की व्यवस्था को ख़त्म होने की कगार पर पंहुचा
दिया है और शासन की अध्यापकों से हर काम करवा लेने की नीति ने शिक्षकों को अध्यापन
की मूल जिम्मेदारी से दूर कर उन्हें वेतन लेकर कोई भी काम करने वाला सरकारी नौकर
भर बना दिया है । सच तो ये है कि सरकार शिक्षा के प्रति कितना भी गंभीर दिखने का
नाटक करे उसके लिए यह अन्य सरकारी योजनायों से अधिक कुछ भी नहीं है। शिक्षा
अधिकारी भी इस मंशा को भाँपते हुए शिक्षा में आने बाली गंभीर समस्यायों से निपटने
की बजाय आंकड़े जुटाकर सब कुछ ठीक दिखाना ही अपना प्रथम कर्तव्य समझते हैं। सब कुछ
ठीक दिखाने के रवैये ने पूरी व्यवस्था को खोखला करके इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर
दिया है कि अब इसमें सुधार करने वालों के पसीने छूटना स्वाभाविक है। कहीं ऐसा न हो
कि एक रोज ये विद्यालय छात्र विहीन होकर अन्य सरकारी संस्थान में बदल जाए और हमारा
अध्यापक मात्र एक सरकारी बाबू बन कर रह जाए।
अवनींद्र जादौन
इटावा, उ.प्र.
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
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