न जाने ये सर्द हवा क्या कह गयी....
कुछ अजीब सा दर्द भरा 'दर्द' दे गयी.....
छुपा रखा था जो सीने में.....
उसी ज़ख्म को फिर हरा कर गयी....
न जाने ये सर्द हवा क्या कह गयी....
कुछ अजीब सा दर्द भरा 'दर्द' दे गयी.....
सूरज आज भी आँख मिचौली कर रहा है...
मानों..इन पेड़ों के पीछे कोई छिप रहा है....
सूरज की कुछ किरणें जमीं पे आ गयी...
एक खिलखिलाती हंसी फिर याद आ गयी....
न जाने ये सर्द हवा क्या कह गयी....
कुछ अजीब सा दर्द भरा 'दर्द' दे गयी.....
कुछ तो है इन बर्फ की ढकी हुई पहाड़ियों के
तले.....
छुप गया हो चाँद गोरी-गोरी कलाईयों के तले....
न जाने ये सर्द हवा क्या कह गयी....
कुछ अजीब सा दर्द भरा 'दर्द' दे गयी.....
ये सर्द शाम कुछ ज्यादा ही ढल गयी है.....
एक बार फिर ज़िन्दगी मुझ से दूर हो गयी है....
न जाने ये सर्द हवा क्या कह गयी....
कुछ अजीब सा दर्द भरा 'दर्द' दे गयी.....
रविश 'रवि'
फरीदाबाद
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