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Sunday, March 17, 2013

कविता: मैं महिला फौलादी



पुरुष-सत्ता की 

कुचली, मसली 
औरत एक निवाला 
मन आया तो खाया 
वरना ठोकर खाने को 
जंगलों में फिंकवाया !
फिर भी तू मतवाली 
इसमें क्या राज है आली ?
मेरी बतीसी में 
ढूंढना मत बेबसी !
मेरी टीस में 
लगाया गया है इंजेक्शन
'सायलेंस ऑफ़ वायलेंस' का ,
जोरम अजमाई है
स्त्री-देह को हिंसा के लिए
अनुकूलन बनाने की !
घर चलाने के काम को देकर 
दोयम दर्जा ,
करना चाहते हो अपना 
वर्चस्व कायम ,
मैं नहीं हूँ अहिल्या ,
मैं नहीं हूँ जड़/शून्य ,
मेरे मुड का भी है मूल्य ,
तेरे गुनाओं का करूंगी 
अब शल्य -चिकित्सा ! 
मानूंगी नहीं अब 
चाहे मांगे प्रेम की भिक्षा !
सोने को जब आग में 
तपाया, गलाया, पीटा गया 
तब बनी थी एक औरत 
गृहस्थी का गहना !
जिसे दम्भी पुरुष के
बौने मस्तिष्क ने 
नहीं चाहा स्वीकारना ! 
ओ निष्ठुर समाज 
निकाल फेंको सोच कबाड़ी 
पत्नी नहीं ठहरे पानी की बाबड़ी 
यह गंगा, यमुना, सरस्वती की संगम 
पवित्र ही जाते सब जड़-जंगम 
औरत को दे दो 
तलाक की मंजूरी 
नहीं कराओ और जी-हजूरी !
मैं हूँ जीती जागती महिला !
जो मही को चाहे तो 
अकेले ही दे हिला !
आर्थिक-निर्भरता के फैराऊँगी 
मैं परचम !
अपने होने और जीने का 
स्पेस रखूंगी हरदम !
पूछोगे नहीं -
मेरी पीठ पर तना 
मिटटी से सना 
किसने झूठे से मुझे छला !
न पूछो तो भला 
यह है मेरा अंश 
नहीं केवल तुम्हारा वंश 
तुम्हारी हिंसा की कंडिशनिंग 
का आदी मेरे शरीर को 
जब भी नये -नये आरोपों ,
तानो ,चुप्पी ,घुन्नेपन ने 
काटा/छीला 
मेरे आंसुओं की नमी से 
नयी कोपलें हुयीं वहीँ अंकुरित 
लो सिगरेट के कश 
उडाओ गुलछरें 
मैं भारत की औलाद 
आर्य देख जल्लादों ने 
बना दिया 
मेरा जिस्म फौलाद 
अब अहिल्या बने रहने की 
खत्म हुयी मियाद !
बड़ी देर भई बने जड़ 
अब अकेले ही तू सड़ 
नहीं देनी अब अग्नि परीक्षा 
मुझे नहीं किसी राम का इन्तजार 
जो करेगा मेरा उद्धार 
पहले पर-पुरुष इंद्र से
छली गयी 
फिर अपने पति 
ऋषि गौतम महान से 
श्रापित हुई !
बिना कसूर मैं ही 
लांछित हुई 
अब मैं ही उठा 
सबको अपने कंधो पर 
अहिल्या नहीं 
ग्लानी क्षोभ नहीं 
मन -मलिन नहीं 
कोई चीत्कार -सीत्कार नहीं 
महिला बनूंगी 
मही से स्वर्गलोक तक 
अकेले मैं ही लडूंगी !
रचनाकार: डॉ. सरोज गुप्ता

वसंत कुंज, दिल्ली

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