जीवन-जल
बादल पानी फ़ूल बहारें, रिमझिम बरसातें,
धरती ने बांटी हैं जग में अनुपम सौगातें,
मौसम ने जब से रंग बदले, कर ली मनमानी,
तार तार हो गयी धरा की वो चूनर धानी.
ताल ताल की सोंन चिरैया,बिन जल बौराई,
बूंद बूंद को प्यासी नदिया ,अश्रु बहा लाई.
ऊँचे महलों ने छीनी है,जीवन की धारा,
हरियाली के अंकुर छीने ,अमृत रस सारा.
जंगल कटे,कटी नदिया के तट की वो माटी,
माटी में मिल गयी धरा के सपनों की थाती.
कलियाँ मुरझाईं, पलाश के पल्लव सूख गए,
कंक्रीटों के जंगल बढ़ते, बादल रूठ गए.
अमराई में जैसे कोयल गाना भूल गयी ,
मंजरियाँ सूखीं रसाल की,खिलनाभूल गईं.
दादुर ,मोर,पपीहे की धुन सपनों की बातें,
अब तो प्यासी धरती है और पथरीली रातें.
पावस झूठा, सावन रूठा, पर अँखियाँ बरसी,
धरतीके बेटों ने रंग दी कैसी यह धरती.
ये धरती माता है जिनकी ,वो कैसे भूल गए?,
निर्वसना माँ के दामन में बांटे शूल नए.
सिसक रही कोने में सिमटी मानव की करुणा,
वापस कर दो मेरी धरती, जो थी चिर तरुणा.
उस ममता को यूँही , रोते बीत गए बरसों,
जिसने बांटा अमृत रस, ममता का धन तुमको.
बंद करो यह धुंआ विषैला अब तो दम घुटता है
प्यास बढ़ी, पानी बिन जैसे यह जीवन लुटता है.
अगर प्रकृति की बात न मानी, मानव पछतायेंगे,
जीवन -जल की बूंद बूंद को प्राण तरस जायेंगे
रचनाकार: सुश्री पद्मा मिश्रा
जमशेदपुर, झारखंड
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