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Tuesday, October 23, 2012

शैतानी (लघुकथा)


चित्र गूगल से साभार 
      ज फिर मैंने रोज़-रोज़ की शैतानियों से तंग आकर अपने सात वर्षीय बेटे की धुनाई कर दी। मैंने उसे चेतावनी देते हुए कहा, ‘यदि आज तूने मुझसे बात भी की तो तेरी खैर नहीं।’ यही नहीं, गुस्से में आज मैंने उसके साथ खाना न खाने की प्रतिज्ञा भी कर डाली, जबकि मैं जानता था कि वह शाम का खाना मेरे साथ ही खाता है, भले ही उसे मेरा कितना ही इंतज़ार क्यों न करना पड़े। आज मैंने कार्यालय जाते समय रोज़ की तरह उसे प्यार भी नहीं किया। कार्यालय जाकर मैं अपने रोजमर्रा के कामों में इस कदर उलझा रहा कि कब चपरासी मेरी टेबल पर लंच रखकर चला गया और कब मैंने उसे खा लिया इसका मुझे होश ही न रहा। कार्यालय के कुछ महत्वपूर्ण कामों के चलते शाम को घर पहुँचने में भी मुझे काफी देरी हो गई। घर पहुँचा तो पत्नी सोती हुई मिली। बेटे ने ही दरवाज़ा खोला। परन्तु मैं बगैर उससे कोई बात किए ड्राइंग रूम में सोफे पर पसर गया। अचानक मेरी नज़र फर्श पर गिरी पड़ी एक तस्वीर पर पड़ी, जो ड्राइंग रूम की दीवार पर काफी समय से टंगी हुई थी। शायद हवा से उखड़ कर वह गिर गई थी। मैं स्टूल पर चढ़कर उस तस्वीर को पुनः दीवार पर टांगने की कोशिश करने लगा। तस्वीर टांगने के पश्चात जब मैं स्टूल से नीचे उतरने को झुका तो देखा, बेटा दोनों हाथों से ज़ोर से स्टूल थामे खड़ा है। उसे वहॉं देखकर मेरा पारा फिर गरम हो उठा। मैं उस पर बरसते हुए चिल्लाया, ‘क्यों रे, अब तू यहॉं स्टूल पकड़े क्या कर रहा है... क्या कोई नई शरारत सूझी है तुझे?’
इस पर डरते-डरते वह धीरे से बुदबुदाया, ‘पापा, शरारत नहीं... कहीं आप गिर पड़ते तो...?’
धीमी आवाज़ में कहे गए उसके उपर्युक्त शब्द मेरे कानों से ज़ोर से जा टकराए। मेरा गुस्सा पल भर में काफूर हो गया था। मैंने स्टूल से नीचे उतरकर उसे अपनी बाहों में भर लिया। मेरी बाहों में आते ही वह मेरे कान के पास अपना मुँह सटाकर धीरे से फुसफुसाया, ‘पापा... चलो मेरे साथ...खाना खा लो...मुझे बहुत भूख लगी है...मैंने आपके इंतज़ार में सुबह से कुछ भी नहीं खाया है।’

रचनाकार-श्री किशोर श्रीवास्तव,
संपादक- हम साथ साथ पत्रिका 

संपर्क- 916- बाबा फरीदपुरी,पश्चिमी पटेल नगर, नई दिल्ली-110008
मो. 9868709348 , 8447673015

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!