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Friday, February 1, 2013

शोभना फेसबुक रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 4

नारी तुम स्वतंत्र हो

सुबह से शाम तक 
चक्कर घिन्नी सी घूमती 
 कभी आँगन से गुसल तक  
 कभी चौके से  देहरी तक 
 कभी हाथ में  जुराब लिए 
 कभी आटे  में हाथ  सने 

 कभी चाय की पुकार 
 कभी कमरे की बुहार 
कभी बस की  रफ़्तार 
 बॉस के तानो की बौछार 
 सुबह से शाम तक 
चक्कर घिन्नी सी घूमती 

 कभी माँ का दायरा 
 कभी पति का हक 
 कभी बहु का कर्तव्य 
 कभी दफ्तर का लक 
 सुबह से शाम तक 
चक्कर घिन्नी सी घूमती 


 नारी !!!तुम कितनी भी
 आधुनिक हो जाओ 

 क्या तुम स्वतंत्र हो ?
 अपने ही बनाये 
दायरों से !
 संस्कारों से !!
व्यवहारों से !!
 लोकाचारो से !!

रचनाकार: सुश्री नीलिमा शर्मा

देहरादून, उत्तराखंड 

56 comments:

  1. बहुत बहुत बधाई नीलिमा जी....
    बहुत सुन्दर रचना..

    अनु

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  2. रचनात्मकता से भरी अंतःकरण को छू लेने वाली
    बेहद संजीदा कृति... बधाई नीलिमा जी |

    सभी लेखकों एवं ब्लॉग के संपादक को हार्दिक शुभकामनाएं|

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  3. बधाई नीलिमा जी , बहुत खूब लिखा आपने :)

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  4. bahut achchi rachna hai ...neelemaji

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    1. सराहनीय शब्दों के लिय आभार आपका शांति जी

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  5. Wah, bahut sundar rachna. Aur samsamayik bhi...

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  6. मेरी रचना को आपने मान दिया उसके लिए बहुत बहुत आभार आपका वंदना जी

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  7. बहुत सुन्दर रचना सखी .. बधाई

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  8. सही कहा आपने कि ये दायरे नारी के ही बनाये हुए हैं। इस लिए "स्वतंत्रता" कहना एक मायने में उचित नहीं होगा क्योंकि परिवार पोषण और आने वाली पीढ़ी को नैतिकता और सदाचार का अभिप्राय समझाने में जितना नारी का योगदान है और ये सब उसके अस्तित्व से इस तरह जुड़ा हुआ है कि अपने इन जिम्मेदारियों को बोझ समझना या इनसे स्वतंत्रता पाने की चेष्टा नारी या इस सारे समाज के लिए अकल्पनीय है।

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  9. This comment has been removed by the author.

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  10. बहुत सुन्दर रचना ...........!

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  11. Bahut hi sunder, Neelima Ji. Kitna sahi likha hai aapne. Mujhe aapke bindas aur bebaak khayal bahut bhaate hain, kyu'n ki unmein ik sachaayi hai. Aisa hi likhte rahiye.

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    1. thank u ... main to sach likhti hun par apne dayre mei rahkar .bahut bahut shukriya ke aapko achcha lagta hain :)

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  12. क्या तुम स्वतंत्र हो
    अपने ही बनाये
    दायरों से !
    संस्कारों से !!
    व्यवहारों से !!
    लोकाचारों से !!!
    ...कमसे कम एक कर्तव्य निष्ठ नारी तो बिलकुल नहीं ...बहुत सही चित्रण ..एक खूंटे से बंधी नारी ..अपनी ही धुरी पर सतत घूमती ...अपने कर्तव्यों का यथाशक्ति निर्वहन करती हुई .....फिर भी सब को खुश करने में असमर्थ .....!!!!!

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  13. BAHUT hi khubsurat aur naari ko jhakjhorti hui rachna,... bahut bahut badhaiyan ,..tahe dil se,..:)

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  14. BAHUT hi khubsurat aur naari ko jhakjhorti hui rachna,... bahut bahut badhaiyan ,..tahe dil se,..:)

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  15. bahut Umdaah Neelima...HAMESHA KI TARAH..:)

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  16. नारी मन और स्वभाव का सटीक चित्रण.... शुभकामनायें

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  17. बिन नारी के धर सदा...
    लगता है वीरान...
    नारी धर में यँ बसे...
    जैसे तन में प्राण...

    नारी से जीवन शुरू..
    नारी के ही संग...
    हर रिश्ते में है रंगी...
    इन्द धनुष के रंग...

    माँ है, बेटी, बहन भी...
    पत्नी, बहू या प्रेयसी..
    मन को वो बान्धे सदा..
    रिश्ता कोई भी रहा..

    नारी करती है रही..
    सेवा सब नि:स्वार्थ...
    बदले की न चाह है..
    लगी रहे दिन रात..

    नारी को मेरा नमन..
    जो जीवन की डोर..
    रहती है हर साँस में..
    चहूँ दिशा, हर ओर..!!!

    नीलिमा जी...आपने नारी के हर रूप के दर्शन करा दिये...ऐसा लगा जैसे धर पहुँच गये हों..

    बहुत सुन्दर कविता...

    सादर..

    दीपक...

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    1. Thank you so much Deepak ji aapki lines bhee bahut achchi hain shukriya

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  18. हाँ यही तो रूप है नारी का , पता नहीं कैसे उसके स्वरूप को सिर्फ कुछ नारियों को देख कर छवि धूमिल करने लग जाते है . इसमें तो मुझे अपनी ही छवि दिखलाई पड़ गयी क्योंकि कई बार जल्दी से नाश्ता तैयार करके अगर देर हो रही है तो कभी कभी ऑफिस में जाकर देखती थी कि हाथ में आटा लगा हुआ है और बाल जल्दी से उलटे सीधे झाड़ कर चल देती थी . यही असली रूप है। .

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  19. हाँ यही तो रूप है नारी का , पता नहीं कैसे उसके स्वरूप को सिर्फ कुछ नारियों को देख कर छवि धूमिल करने लग जाते है . इसमें तो मुझे अपनी ही छवि दिखलाई पड़ गयी क्योंकि कई बार जल्दी से नाश्ता तैयार करके अगर देर हो रही है तो कभी कभी ऑफिस में जाकर देखती थी कि हाथ में आटा लगा हुआ है और बाल जल्दी से उलटे सीधे झाड़ कर चल देती थी . यही असली रूप है। .

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  20. अद्भुत! आपके शब्दों का ठहराव समय को भी मोड़ देने में सक्षम है। शुभकामनाएं।.

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  21. रचना को पसंद करने के लिय आपका तहे दिल से शुक्रिया

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  22. Rekha ji bahut bahut shukriya . kai bar yaha aapko dhanywad likha parantu dekhai nhi de raha hain

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  23. Rekha ji bahut bahut shukriya . kai bar yaha aapko dhanywad likha parantu dekhai nhi de raha hain

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  24. बहुत बहुत बधाई नीलिमा ...
    बहुत सुन्दर रचना..

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  25. बहुत बहुत बधाई नीलिमा....
    बहुत सुन्दर रचना..

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  26. स्वतन्त्रता की एक सीमा होती है । उसके अंदर स्वतन्त्रता का उपभोग करने वाला दुविधाओं आशंकाओं व हननता से मुक्त यथार्थ में स्वतंत्र होने का अनुभव करता है । कर्तव्य की आवाज तो न चाहकर भी सुनाई पड़ जाती है ।

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और जो लगे बुरा तो बुरा लिखें
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!