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Thursday, April 19, 2012

दीपक का दर्द

जब तक तेल है
दीपक में
बाती भी जलती है,
पतंगे भी चारों ओर मंडराते हैं,
रोशनी की परछाईं भी
नाचती
और बतियाती हैं चारों ओर.

लेकिन
दीपक का तेल
जब चुक जाता है,
पतंगे उड़ जाते हैं
कहीं और,
रोशनी की अठखेलियाँ भी
छुप जाती हैं
अँधेरे की बाँहों में.

स्नेहहीन दीपक
रह जाता है
अकेला
ढूँढने अपना अस्तित्व
अँधेरे में.


कैलाश शर्मा 

7 comments:

  1. वह बतलाता है कि दुनिया मिट्टी है जिस मिट्टी का दीपक बना है। मिट्टी को मिट्टी हो जाना है। जो मचा रहे हैं गुल गपाड़ा, उन्‍हें गोल गप्‍पा खिलाना है।

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  2. बहुत खूब कैलाश शर्मा जी...
    स्वागत है आपका...

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    1. शुक्रिया सुमित जी...

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  3. सुन्दर कविता कैलाश जी

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  4. अच्छा लिखा है

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  5. आपकी कविता सार्थक और प्रेरणादायक है.

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
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