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Thursday, April 19, 2012

प्‍यार की पुंगी बजा के .........

अविनाश वाचस्‍पति अन्‍नास्‍वामी ने लिखा है :-



बोली घास की नहीं बापू के खून की हुई है। खरीदने वाले गधे थोड़े ही हैं जो घास के लालच में इतने नोट खर्च कर देंगे। उस घास में बापू का खून है, खून लाल ही रहा होगा लेकिन इतना लाल भी नहीं कि बापू के असर से घास का रंग बदल कर लाल हो गया हो और खरीदने वाले लाल रंग की घास उपजाने के लिए बोली लगा बैठे हैं। तब खून करने की कीमत थी, आज खूनी घास की कीमत है। खूनी घास कहने से घास को हत्‍यारा मत समझ लीजिए। हत्‍यारे तो वह भी नहीं हैं जिन्‍होंने बोली लगाई है। वह घास को बोली लगाकर इसलिए खरीद रहे हैं ताकि भावनाओं से खिलंदड़पना करने का जालिम अहसास किया जा सके। आप इसे प्‍यार की पुंगी बजाना समझ सकते हैं जबकि यह भावनाओं की पुंगी बजाई जा रही है।

4 comments:

  1. बहुत सटीक व्यंग...

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    1. आपने मेरे व्‍यंग्‍य को इतनी महंगी टीक लकड़ी का बना बतलाया है, मेरा कीबोर्ड बहुत खुश हुआ है, आप कैलाश पर बैठ कर भी शर्माए नहीं, हमारा तो हौसला बुलंद हुआ है।

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  2. स्वागत है अविनाश वाचस्पति जी यहाँ अपने लेखन की शहनाई बजाएँ...

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सुमित प्रताप सिंह,
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