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Monday, February 1, 2016

एक पत्र रायते के नाम (व्यंग्य)


प्यारे रायते
सादर फैलस्ते!
       और सब कुशल मंगल है नअरे नाराज मत हो मैं भली-भाँति जानता हूँ तुम्हारे साथ कुछ भी कुशल मंगल नहीं है इसीलिए तो तुम्हें ये पत्र लिख रहा हूँ। अब पत्र के आरंभ में कुशल क्षेम पूछने की अपनी पुरानी परंपरा जो ठहरी सो मैं भी उसी प्राचीन परंपरा का निर्वहन कर रहा था। अब ये और बात है कि इन दिनों कुछ महानुभाव आधुनिकता की दुहाई देते हुए प्राचीन परंपरा और संस्कृति से किनारा करने में ही अपना बड़प्पन समझने लगे हैं। पर हम ठहरे पुराने विचारों के आधुनिक लोग जो चाहकर भी अपनी परंपरा और संस्कृति को नहीं छोड़ सकते। खैर छोड़ो इन बातों को तुम तो ये बताओ कि आजकल काहे को इतना उदास रहते होइतने स्वादिष्ट व्यंजन को यूँ उदास और गुमसुम रहना भी भला कहीं जँचता है। एक तुम्हीं तो हो जिसे भोजन में ग्रहण करके पेट की गर्मी से राहत मिलती है और पाचन भी दुरुस्त रहता है। तुम्हारे भिन्न-भिन्न रूप स्वाद से भरपूर होते हैं। बूँदी का रायताबथुए का रायताकद्दू का रायता और घीये का रायता तो खाते-पीते हुए जी ही नहीं भरता। सच कहूँ तो तुम तो हमारे भोजन का अभिन्न अंग हो। अरे देखो तो तुम्हारे विभिन्न रूपों का स्मरण करते ही जीभ से लार टपकने लगी। जीभ में हींगजीरेकाले नमक और चाट मसाले का स्वाद लार के साथ तैरने लगा। जिस प्राणी ने तुम्हारा स्वाद नहीं लिया उसने भला जीवन जिया भी तो क्या जिया। अरे-अरे तुम तो रोने लगे। अब रोना बंद भी करो। मैं तुम्हारी पीड़ा अच्छी तरह जानता और समझता हूँ। तुम्हें भोजन में ग्रहण करने की बजाय इन दिनों बिना-बात में निरंतर फैलाए जाने से तुम्हारा हृदय जिस अपमान और पीड़ा से गुज़र रहा है वो किसी से छिपा नहीं है। तुम्हारे स्वाद के दीवाने उस दिन को कैसे भूल सकते हैं जब एक माननीय महोदय आए और रैलियों के महानगर की सत्ता हथियाकर सड़कों पर रायता फैलाने की परम्परा आरंभ कर दी। अपनी हर असफलता का ठीकरा दूसरे के सिर पर फोड़ने में सिद्धहस्त उन माननीय महोदय का अनुसरण भेड़ बनकर तूफ़ान की मार से अपने जहाज डुबो चुके अन्य माननीय महोदय भी कर रहे हैं। अब जनता के हित में क्या ठीक है सोचने की बजाय ये महोदय नित्य किसी न किसी ऐसे मुद्दे की खोज में रहते हैं जिसके बल पर रायता फैलाया जा सके। कभी जाति मुद्दा बनती है तो कभी धर्म। कभी मंदिर मुद्दा बनता है तो कभी मस्जिद। आजकल इनका सारा समय रायता फैलाकर शोर-शराबा करने में ही बीतता है। इनका शायद एकमात्र उद्देश्य है कि न कुछ खुद करो न किसी को कुछ करने दो। विकास की माँग पर हो-हल्ला मचाकर रायता फैलानेवाले इन महोदयों का प्रयास रहता है कि इनके द्वारा फैलाए गए रायते से विकास का पैर फिसल जाए और वो फिसलकर ऐसा गिरे कि उसकी कमर टूट जाए तथा वो थोड़ा-बहुत भी चलने-फिरने के लायक न रहे। इन्हें ये अंदाजा नहीं है कि जिस दिन तुम सही तरीके से फैलने पर आ गएउस दिन ये सब ऐसे फैलकर फेल होंगे कि कोई इन्हें पास करनेवाला भी नहीं मिलेगा। इसलिए यदि ये सब तुम्हें समय-असमय बिना-बात के फैलाकर बर्बाद करते हैं तो तुम निराश और दुखी मत होना क्योंकि जैसे कि कहावत है कि बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद वैसे ही रायता फैलानेवाले क्या जाने रायता खाने का स्वाद। सो जो तुम्हारे स्वाद के प्रेमी हैं वो तुम्हें पहले जितना ही प्यार और आदर देते रहेंगे और जो तुम्हारे स्वाद और गुणों से अनभिज्ञ हैं वो तुम्हें फैलाते ही रहेंगे। इसलिए अब टेंशन-वेंशन छोड़कर झट से अपने उसी रूप में फिर से वापस लौट आओ क्योंकि तुम्हारा स्वाद लेने को जी बहुत मचल रहा है।

तुम्हारे जैसे थे की स्थिति में वापस लौटने की प्रतीक्षा की आस लिए हुए तुम्हारे स्वाद का दीवाना 
एक रायता प्रेमी भारतीय

लेखक : सुमित प्रताप सिंह

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!