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Friday, March 14, 2014

कविता: मुट्ठी भर छाया भी है

माना धूप भरा है आँगन  
पर मुट्ठी भर छाया भी है
माना ढेरों सपने टूटे 
अपने और बेगाने रूठे
मंजिल की तलाश में जाने
कितने ठौर-ठिकाने छूटे
उलझन के झुरमुट में अक्सर
किरणों के हिरन फंस गए
अंतर में थी पीर भयंकर
किन्तु अधर ये हंस गए
ढहते प्राणों के तट ने
जाने कितने आघात सहे हैं
अनजान भविष्य के सपने
लहरों संग दिन-रात बहे हैं
माना रात बहुत लम्बी है
और बहुत है दूर सवेरा
पर सब सपने सच होंगे
कहता है अंतर्मन मेरा
माना बहुत अधिक है खोया
पर कुछ तो पाया भी है
माना धूप भरा है आँगन

पर मुट्ठी भर छाया भी है

रामजनम  सिंह
 
इटावा 

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