आज भी याद है जब 17 साल की उम्र में अपना घर और अपने मां-बाप को छोड़कर मैं इलाहाबाद आई थी। 10वीं में अच्छे नंबर आने के बाद मेरे पिता ने मेरी आगे की पढ़ाई के लिए मुझे बाहर भेजने का फैसला किया था। इलाहाबाद में मैं अपने एक रिश्तेदार के घर रहकर पढऩे वाली थी। ये पहला मौका था जब मैं घर से दूर जाने वाली थी। इसके पहले कभी-कभार ही और वो भी किसी विशेष काम से ही मेरा बाहर जाना हुआ था। अपने क्लासमेट की बर्थ-डे पार्टी से लेकर मोहल्ले में होने वाले विभिन्न समारोह में भी मैं अकेले नहीं जाती थी। इसे आप घर की तरफ से पाबंदी भी कह सकते हैं और मेरे भीतर की झिझक भी। हालांकि, मैं इसे अपनी झिझक ही मानती हूं क्योंकि आज लगभग 12-13 साल बाद, बाहर रहकर मैंने जितनी भी दुनिया देखी और उसे समझ पाई, उसके अनुसार हमारा सामाजिक ताना-बाना ही ऐसा है कि लड़की अपने आप सरेंडर कर देती है। घर का माहौल ही ऐसा दिया जाता है कि वह अपनी इच्छाओं के बारे में सोच ही नहीं पाती।
मैं अभी हाल में एक वरिष्ठ महिला पत्रकार से मिली। जब मैंने उनसे समाज में लड़के-लड़कियों के साथ हो रहे भेदभाव के बारे में उनकी राय जाननी चाही तो वे बहुत सहज भाव से मुस्कुराईं और कहा कि ये तो प्राकृतिक है। ऐसा होता ही है, इसमें आश्चर्य वाली कोई बात नहीं। उन्होंने उदाहरण देने के लिए मुझसे ही सवाल पूछा कि मान लीजिए आपकी छोटी बहन रात आठ बजे आपसे कहती है कि उसे कोई किताब लाने मार्केट जाना है तो आप क्या कहेंगी? मैं कुछ कहती, इससे पहले ही उन्होंने खुद ही कह दिया- जाहिर है आप उससे कहेंगी कि अगर ज्यादा जरूरी नहीं तो कल सुबह जाकर किताब ले आना। मैं इसका जवाब सोच ही रही थी कि तभी उन्होंने कहा कि वहीं, अगर आपका छोटा भाई ऐसा कहे तो आप उससे कहेंगी कि देखो- बाइक-वाइक जरा ढंग से चलाना, स्पीड कंट्रोल में रखना और जल्दी घर आने की कोशिश करना। इसके बाद वो मुस्कुराईं जैसे इस बात पर मेरी सहमति लेना चाहती हों पर मैं उलझन में थी। मैं समझ नहीं पा रही थी कि उनकी बात का क्या जवाब दूं? शायद वो ठीक कह रही थीं। हम अपने घर-परिवार में ऐसा ही माहौल तो पाते हैं, ऐसी ही बातें देखते-सुनते हैं और कभी ये अहसास ही नहीं हो पाता कि गलत क्या है और सही क्या? मुझे लगता है कि बात यहां भेदभाव दिखाने या छुपाने की नहीं है, बात है उस माहौल को बदलने की जिसमें किसी लड़की को ये पता ही नहीं चल पाता कि वो जो कर रही है, अपनी इच्छा से कर रही है या फिर घर-परिवार की सलाह या उनके दबाव में।
खैर, मैं जब पहली बार इलाहाबाद जाने को तैयार हुई तो मुझे दुख तो बहुत था पर मैं खुद को बहुत हिम्मती दर्शाती हूं और कोशिश करती हूं कि मेरे आंसू, मेरा दुख किसी और के सामने ना आ जाए, इसलिए मैं घर में बिल्कुल नहीं रोई। तब भी जब मेरी मां ने मुझे गले लगाया और वो खुद रोने लगीं। इलाहाबाद में दो साल का समय शायद मेरी जिंदगी का सबसे कठिन दौर था। एक तो रिश्तेदार के घर रहकर पढ़ाई करना, उस पर खुद को हर स्थिति-परिस्थिति में हिम्मती और मजबूत दिखाने की कोशिश करना, मेरे लिए असहाय था। ऐसा नहीं है कि जिनके पास मैं थी, उन्होंने मेरी देखरेख नहीं की या मेरी जरूरतें पूरी नहीं कीं लेकिन शायद कुछ कमी तो थी ही जिसने मुझे मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सबक दिया। जैसे-तैसे पढ़ाई पूरी करने के बाद ग्रेजुएशन में मेरा एडमिशन बीएचयू में हुआ। इस बार फिर मेरे पिता ने मुझसे बनारस में मेरे एक रिश्तेदार के घर ही रहकर पढऩे को कहा लेकिन इस बार मैंने विद्रोह किया। शायद यही मेरा पहला विद्रोह था। मैंने साफ-साफ कहा कि चाहे मेरी पढ़ाई पूरी हो या न हो, मैं अब किसी रिश्तेदार के घर रहकर पढ़ाई नहीं करूंगी। मुझे हॉस्टल में रहना है। मेरी इस बात पर मुझसे कहा गया कि हमारा समाज ऐसा नहीं है जो लड़कियों को हॉस्टल में रहकर पढऩे की इजाजत दे। शादी-ब्याह में बहुत दिक्कतें आएंगी। जब किसी अच्छे परिवार को पता चलेगा कि लड़की ने हॉस्टल में रहकर पढ़ाई की है तो कोई शादी करने को तैयार नहीं होगा। इन तर्कों-कुतर्कों के बावजूद मैंने अपनी जिद नहीं छोड़ी और अंत में मुझे हॉस्टल जाने की अनुमति मिल ही गई।
यही मेरी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट था जहां से मैंने अपने आसपास की दुनिया को एक नए नजरिए से देखना शुरू किया। आसपास के लोगों, उनकी सोच, उनकी समझ के साथ मैं अपने-आप को भी समझने की कोशिश करने लगी। मुझे समझ में आने लगा कि मुझे क्या करना है और मैं क्या चाहती हूं। वो एक झिझक जो घर में थी और जिसका मुझे अहसास भी नहीं था, धीरे-धीरे दूर होती चली गई। अब मुझे लगता है कि ये झिझक हर लड़की में होती है और उसे इसका पता भी नहीं होता। इसलिए जरूरी है कि हम एक ऐसा माहौल दें जिसमें उसका आत्मविश्वास बना रहे, उसे पता रहे कि वो क्या करना चाहती है। निश्चित रूप से इसकी शुरुआत घर से ही होगी क्योंकि परिवार ही किसी बच्चे का पहला स्कूल होता है और मां सबसे पहली शिक्षक।
कुछ दिनों पहले हाईकोर्ट की एक महिला एडवोकेट से मुलाकात हुई। उनकी एक बात जो मुझे अच्छी लगी कि ईश्वर ने हमें समाज को जोडऩे, उसमें एकरूपता बनाए रखने के लिए ही धरती पर भेजा है। इस समाज को हम लड़का-लड़की या स्त्री-पुरुष वर्ग में बांटकर तोड़ें नहीं। उन्होंने कहा कि ये हम सभी की जिम्मेदारी है कि हम अपने-अपने दायित्वों, कर्तव्यों का पालन पूरी ईमानदारी से करें। हालांकि, उनकी इस बात ने भी मुझे सोचने पर मजबूर किया कि क्या ऐसा तब तक संभव है जब तक दोनों को व्यक्ति होने का अधिकार न दिया जाए? उन्हें उनके सपनों, इच्छाओं के बारे में सोचने और उन्हें पूरा करने का हौसला न दिया जाए? शायद नहीं, क्योंकि ये तो ठीक है कि हमें अपने दायित्वों को पूरा करना है और ईश्वर ने भी इसी उद्देश्य से हमें धरती पर भेजा है लेकिन उन अधिकारों का क्या जो एक लड़की सोच भी नहीं पाती? उसे पता ही नहीं चलता कि उसका आसमां कितना ऊंचा है और उसके पंख कितने मजबूत? आज भले ही लड़कियां घरों से निकलकर दूसरे शहरों में पढ़ाई कर रही हैं, नौकरी कर रही हैं, आर्थिक रूप से सशक्त हैं लेकिन क्या वो अपने सपनों को लेकर आश्वस्त हैं कि वे पूरे होंगे? उन्हें पूरा होने दिया जाएगा? कहने के लिए तो कोई भी बुद्धिजीवी ये कहेगा कि आप खुद कमाती हैं तो आपको किसी से डरने या अपने सपनों को पूरा करने के लिए दूसरे पर निर्भर रहने की क्या जरूरत? आप ये क्यों सोचें कि आपके सपनों को पूरा करने में कोई रोड़ा आएगा? लेकिन ये सच नहीं है।
मेरी एक सहेली है। उसका पूरा परिवार बहुत पढ़ा-लिखा है। पिता-भाई वकील हैं और अपनी बेटियों-बहनों को भी उच्च शिक्षा दिलवा रहे हैं। मेरी सहेली खुद पिछले डेढ़-दो साल से दिल्ली में अकेले रहकर कॉम्पटिटिव एग्जाम्स की तैयारी कर रही है, उसके लिए कोचिंग कर रही है। दिल्ली जैसे शहर में अपनी रोजमर्रा की जिंदगी की मुश्किलों से जूझ रही है। क्या वो इतनी सशक्त या समर्थ नहीं कि अपनी जिंदगी के फैसले ले सके? ये तय कर सके कि उसके लिए क्या सही है और क्या गलत? शायद उसे दिल्ली भेजकर पढऩे की अनुमति देने वाले उसके परिवार को इसमें संदेह है। यही वजह रही कि उसकी शादी तय कर दी गई और उससे पूछना तो दूर उसे बताया तक नहीं गया। मैं ये नहीं कहती कि जो हमसफर उसके लिए चुना गया, उसके साथ वो अपनी जिंदगी आसानी से नहीं गुजार पाएगी क्योंकि उससे पूछा नहीं गया। हो सकता है कि उन दोनों की जिंदगी बहुत अच्छे से बीते, सुख से बीते पर इस संभावना के साथ वो करना सही था, जो किया गया? क्या मेरी सहेली को इतना भी हक नहीं कि वो अपने होने वाले जीवनसाथी से मिले, उससे बात करे और फिर फैसला करे कि उसे उसके साथ शादी करनी है या नहीं? उसे तो इस बात का मौका ही नहीं दिया गया कि वो अपनी पसंद-नापसंद जाहिर कर सके। ये फैसला एक तरह से उस पर थोपा गया और जब मैंने उससे इस बारे में बात की तो उसका बहुत मासूम-सा जवाब था कि परिवार वाले जो करते हैं, अच्छा ही करते हैं। मैं उसके इस जवाब से निराश नहीं हुई और न ही मुझे कोई आश्चर्य हुआ क्योंकि मैं ये जानती हूं कि ये जवाब सिर्फ मेरी सहेली का ही नहीं बल्कि हर उस लड़की का हो सकता है जिसे वो माहौल ही नहीं दिया गया जिसमें वह अपने सपने देख सके। हैरानी इसलिए भी नहीं क्योंकि हमारे समाज की लड़कियों को पता भी नहीं होता कि उनकी भी कुछ इच्छाएं हैं।
समाज का एक दूसरा वर्ग भी है जो अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखाकर उन्हें उनके पैरों पर खड़ा भी करवाता है। उन्हें आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से सशक्त बनाता है लेकिन जब फैसला उसके पूरे जीवन का आता है तो वही परिवार तर्क देता है हमने तुम्हें इतना पढ़ाया, तुम्हारी इच्छाएं पूरी कीं तो अब तुम्हारी बारी है कि तुम भी हमारी इच्छाओं को पूरा करो। ये अजीब-सा मनोविज्ञान है। क्या हम किसी की मदद इसलिए करते हैं कि हमें उससे कुछ चाहिए? क्या हम किसी भूखे को इसलिए खाना खिलाते हैं कि बदले में एक दिन वह भी हमें खाना खिलाएगा? कुछ अति धार्मिक प्रवृत्ति के लोग मेरे इस सवाल का जवाब ये भी दे सकते हैं कि हम किसी की मदद इसलिए करते हैं ताकि हमारा परलोक सुधरे। हमारे अंत के बाद भी हमें याद किया जाए। यहां मेरा सवाल है कि ऐसे लोग अपनी बेटियों को अपना इहलोक सुधारने के लिए पढ़ाते-लिखाते न हों, इसकी क्या गारंटी है? हो सकता है कि अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बचाने, समाज में तथाकथित आधुनिक कहलाने की चाह उनमें हो और जब बात बेटियों की शादी की आए तब भी यही मनोविज्ञान काम करता है। यानी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए बेटी की शादी अपनी पसंद के लड़के से करवाना। उसकी पसंद-नापसंद के बारे में न जानना या उसे अहमियत देना जरूरी नहीं समझना ही हमारा सामाजिक ढांचा है।
अब आप ही बताइए, जिसे ये पता नहीं कि उसकी भी कोई इच्छा-अनिच्छा है, जिसे पता ही नहीं कि उसे क्या चाहिए, उसके जीवन का सबसे बड़ा फैसला उसका परिवार लेता हो वह खुद नहीं तो क्या वह एक व्यक्ति है? क्या अपने भाई या अपने घर के किसी पुरुष के समकक्ष है? और जब वह अपने घर में ही दोयम दर्जे की है तो समाज या देश में कैसे आगे रह सकती है? जब उसके तथाकथित अपनों ने उसके प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभाया तो वह कैसे निभा सकती है? ऐसे में एक लड़की तो फिर पति या बेटे के हाथों की कठपुतली ही बन कर रह जाएगी जिसके सपने उनसे शुरू होकर उन्हीं पर खत्म हो जाते हैं।
लेखिका: स्मृति मिश्रा
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा प्रिंट मीडिया और आकाशवाणी से जुड़ी हैं.
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!