विषय: नारी शोषण
बनी
रहूंगी तनी रहूंगी मैं
एक
मुट्ठी की तरह
धनुष
पर खिंचे बाण सी
समेट
कर उंगलियाँ हथेली पर
दाब
दोगे जमीन पर
तो
भी अंकुरित होती रहूँगी
मेरी
जड़ें काट कर
बोनसाई
बनाने की
कोशिश
करोगे जितनी
उतनी
ही बढती रहूंगी मैं
बरगद
की तरह
अपनी
मुट्ठी की ताकत को
शस्त्र
बना कर
उँगलियों
को अस्त्र बना कर
रचूँगी
एक नया इतिहास
मैं
अबला नहीं -सबला हूँ
संतुलित
रह कर
तराजू
कांटे की तरह
अब
नहीं झुका सकोगे तुम
कभी
इधर कभी उधर
क्यूंकि
अब मैं
जान
गईं हूँ कि
ओस
की बूँद की तरह नहीं
मेरा
अस्तित्व
जो
क्षण में समाप्त हो जाए !
रचनाकार:
डॉ सरस्वती माथुर
जयपुर, राजस्थान
अच्छा प्रयास है
ReplyDeleteबनी रहूंगी तनी रहूंगी मैं
ReplyDeleteएक मुट्ठी की तरह
धनुष पर खिंचे बाण सी
समेट कर उंगलियाँ हथेली पर
दाब दोगे जमीन पर
तो भी अंकुरित होती रहूँगी
मेरी जड़ें काट कर
बोनसाई बनाने की
कोशिश करोगे जितनी
उतनी ही बढती रहूंगी मैं
बरगद की तरह
अपनी मुट्ठी की ताकत को
शस्त्र बना कर
उँगलियों को अस्त्र बना कर
रचूँगी एक नया इतिहास
मैं अबला नहीं -सबला हूँ
मैं अबला नहीं -सबला हूँ ये हुँकार - आगाज़ की बहुत जरूरत है ....
सामयिक लाजबाब रचना !
सादर
ओजस्वी भाव लिए सार्थक रचना
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