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Monday, January 7, 2013

शोभना काव्य सृजन पुरस्कार प्रविष्टि संख्या - 20

विषय: नारी शोषण  
बनी रहूंगी तनी रहूंगी मैं
एक मुट्ठी की तरह
धनुष पर खिंचे बाण सी 
समेट कर उंगलियाँ हथेली पर 
दाब दोगे जमीन पर 
तो भी अंकुरित होती रहूँगी 
मेरी जड़ें काट कर
बोनसाई बनाने की 
कोशिश करोगे जितनी
उतनी ही बढती रहूंगी मैं 
बरगद की तरह 
अपनी मुट्ठी की ताकत को
शस्त्र बना कर
उँगलियों को अस्त्र बना कर 
रचूँगी एक नया इतिहास 
मैं अबला नहीं -सबला हूँ 
संतुलित रह कर 
तराजू कांटे की तरह 
अब नहीं झुका सकोगे तुम 
कभी इधर कभी उधर 
क्यूंकि अब मैं
जान गईं हूँ कि 
ओस की बूँद की तरह नहीं 
मेरा अस्तित्व 
जो क्षण में समाप्त हो जाए !

रचनाकार: डॉ सरस्वती माथुर

जयपुरराजस्थान

3 comments:

  1. अच्‍छा प्रयास है

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  2. बनी रहूंगी तनी रहूंगी मैं
    एक मुट्ठी की तरह
    धनुष पर खिंचे बाण सी
    समेट कर उंगलियाँ हथेली पर
    दाब दोगे जमीन पर
    तो भी अंकुरित होती रहूँगी
    मेरी जड़ें काट कर
    बोनसाई बनाने की
    कोशिश करोगे जितनी
    उतनी ही बढती रहूंगी मैं
    बरगद की तरह
    अपनी मुट्ठी की ताकत को
    शस्त्र बना कर
    उँगलियों को अस्त्र बना कर
    रचूँगी एक नया इतिहास
    मैं अबला नहीं -सबला हूँ

    मैं अबला नहीं -सबला हूँ ये हुँकार - आगाज़ की बहुत जरूरत है ....

    सामयिक लाजबाब रचना !

    सादर

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  3. ओजस्वी भाव लिए सार्थक रचना

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सुमित प्रताप सिंह,
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