विषय: कन्या भ्रूण हत्या
सहेजा था कभी सपनो में मुझको
तिमिर में रोशनी का एहसास हूँ ,
अखबार समझ मुझे आधा ही पढ़ा
भूल गए कि मैं इश्वर का लिखा एक उपन्यास हूँ ।
ना बन पाया जो मैं वो शिलान्यास हूँ
सोचा था कि मंदिर में मूरत सा नूर होगा
खुशियों से ताल्लुक मेरा जरुर होगा,
हौंसले पंख बनेंगे ए उड़ाने नभ चूमेगी
पर क्या पता था बेटी होना ही एक कुसूर होगा ,
खलिश है मन में कि मैं अनबुझी प्रयास हूँ ।
ना बन पाया जो मैं वो शिलान्यास हूँ
सब कुछ बदल दूंगी ये हौसला लिए बैठी थी
आंधियों में दीप बन जलने का फैसला लिए बैठी थी,
बाबुल के अंगना को अपने कंगना में रखूंगी
पर क्या पता था उजड़ा हुआ घोंसला लिए बैठी थी ,
आसमा से गिरते परिंदे कि मैं आखिरी सांस हूँ
ना बन पाया जो मैं वो शिलान्यास हूँ
माँ . मैं ईश्वर की भेजी शुभकामनाये थी
दुआएं थी वन्दनाएँ थी मैं ही वेद की ऋचाएं थी ,
हम हर किसी के मुकद्दर में कहाँ होती है
रब को जो घर पसंद आये बस वहाँ होती है ,
आज तोड़ दिया ईश्वर का आपने मैं वो विश्वास हूँ
ना बन पाया जो मैं वो शिलान्यास हूँ ..
रचनाकार: श्री प्रतीक दवे
रतलाम, मध्य प्रदेश
.सार्थक अभिव्यक्ति @मोहन भागवत जी-अब और बंटवारा नहीं .
ReplyDeleteसुन्दर और सार्थक रचना
ReplyDeleteनई पोस्ट :" अहंकार " http://kpk-vichar.blogspot.in
सच को उकेरती रचना
ReplyDeletenice poem
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