क्या हम सब उन चंद बलात्कारियों से कुछ कम हैं? बस फर्क यह
है कि उनकी बर्बरता और क्रूरता उजागर हो गयी है और हम अपनी खाल में अब तक छिपे हुए
हैं.शायद हमारी असलियत सामने आना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि हमने अपने असली चेहरों
को मुखोटों से छिपा रखा है,हमारे खून से सने नाख़ून खुलेआम नजर नहीं आते और अंदर से
जानवर और हैवान होते हुए भी बाहरी आवरण के कारण हम संभ्रांत दिखाई पड़ते हैं. क्या
महिलाओं के साथ यौन अत्याचार ही बलात्कार है?..तो फिर वह क्या है जो हम रोज,हरदिन
सालों साल से महिलाओं के साथ करते आ रहे हैं? चंद पैसों के लिए गर्भ में बेटियों
की मौजूदगी के बारे में बताने वाले डाक्टर क्या बलात्कारियों से कम क्रूर हैं. डाक्टर
तो फिर भी पैसों के कारण अपने पवित्र पेशे से बेईमानी कर रहे हैं पर हम स्वयं क्या
अपनी जिम्मेदारी ढंग से निभा रहे हैं? अपनी अजन्मी बेटी को कोख में मारने की
अनुमति और उसका खर्च भी तो हम ही देते हैं.नवजात बच्ची को कभी दूध में डुबाकर तो
कभी ज़िंदा जमीन में दफ़न करने वाले भी तो हम ही हैं...और यदि इतनी अमानवीयता के बाद
भी बेटियों ने जीने की इच्छाशक्ति दिखाई तो फिर उसे कूड़े के ढेर पर आवारा कुत्तों
के सामने भी हम ‘तथाकथित’ संभ्रांत लोग ही फेंककर आते हैं. क्या हमारा यह अपराध इन
बलात्कारियों से किसी तरह कम है?
बेटियों को
बचपन से ही समाज से डरना हम ही सिखाते हैं. उसे हमेशा सिर झुकाकर चलने, दिनभर घर
में कैद रहने, कायदे के कपडे पहनने, जींस जैसे आधुनिक परिधानों से दूर रहने और
मोबाइल लेकर नहीं चलने जैसे आदेश भी हम ही देते हैं.लड़के और लड़कियों में रोजमर्रा
के काम-काज में भेदभाव भी हम ही करते हैं और एकतरह से बचपन से ही लड़कियों को उनकी
औकात में रखने के जतन में हम सपरिवार जुटे रहते हैं.उनकी शिक्षा तथा परवरिश से
ज्यादा चिंता हमें उनके विवाह और दहेज की होती है.आखिर दहेज लेने वाले और देने
वाले भी तो हम ही हैं. कम दहेज पर ससुराल में बहू को प्रताड़ित करने और जलाकर मार
डालने वाले भी तो हम ही हैं. तो फिर बलात्कारियों की हैवानियत और हमारी पाशविकता
में क्या फर्क है?
हमारी अमानवीयता
इतने के बाद भी नहीं रूकती बल्कि जीवनभर कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली पत्नी की
हैसियत हमारे लिए महज एक नौकरानी,हमारे बच्चों की आया और मुफ्त में यौन सुख देने
वाली मशीन से ज्यादा कुछ नहीं होती. उसे बचपन से इस ‘पति सेवा’ का पुण्य कमाकर स्वर्ग
जाने का मार्ग भी हम जैसे लोग ही सुझाते हैं और अपने(पति) से पहले उसकी मृत्यु पर
संसार से ‘सुहागन’ जाने जैसी कामना को हम ही जन्म देते हैं परन्तु पति को दूसरे
विवाह के लिए खुला भी हम ही छोड़ते हैं. यदि स्थिति उलट हुई तो फिर विधवा महिला के
लिए हमारे पास नियम-कानूनों और बंधनों की पूरी फेहरिस्त है.यदि इन तमाम उपक्रमों
के बाद भी महिलाएं किसी तरह बच गयी तो वृद्धा माँ को महज कुछ साल अपने साथ ढंग से रख
पाने की जिम्मेदारी भी हम नहीं निभा पाते इसलिए शायद कभी वृद्धाश्रम तो कभी खुलेआम
सड़क पर छोड़कर हम ‘पुरुष’ होने के अपने कर्तव्यों से मुक्ति पा जाते हैं. क्या
हमारी ये हरकतें किसी बलात्कारी के अपराध से कम हैं? आज भी जब पूरा देश महिलाओं की
सुरक्षा के मुद्दे पर आंदोलित है तब भी छह साल की बच्ची से लेकर साठ साल की बुजुर्ग
महिला का मान-मर्दन करने, आँखों के जरिए सड़क पर चलती लड़कियों का शारीरिक भूगोल
मापने और अवसर मिलते ही मनमानी करने जैसी घटनाओं में ज़रा भी कमी नहीं आई है. जब
पूरे समाज में ही अराजकता,महिलाओं के प्रति असम्मान,बेटियों के शोषण की भावना और
उनके प्रति हिंसा पसरी हो तो फिर कोई कानून,कोई फांसी या फिर जिंदगी भर की कैद भी
हमें कैसे सुधार सकती है?
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!