भारत
के संदर्भ में देखा जाए तो सबसे अधिक सशक्त जनमाध्यम आज भी आकाशवाणी और
दूरदर्शन ही है। दूरदर्शन का भौतिक विकास, पहुंच और तकनीकी तंत्र निजी
चैनल्स के मुकाबले कहीं अधिक बेजोड़ है। भारत के सुदूर गांवों को तो छोड़
ही दीजिए महानगरों से कुछ दूर बसे गांवों में भी निजी चैनल्स की पहुंच नहीं
है जबकि वहां धड़ल्ले से दूरदर्शन देखा जा रहा है। भारत आज भी गांवों में
ही बसता है। देश में शहरी आबादी से कहीं अधिक ग्रामवासी हैं। स्पष्ट है,
'वास्तविक दर्शक संख्या' दूरदर्शन के मुकाबले किसी के पास नहीं। टीआरपी
(टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) के नाम पर जो दर्शक संख्या प्रदर्शित की जाती है
वह इने-गिने शहरों से प्राप्त आंकड़े हैं। यह भारत के टेलीविजन दर्शकों की
वास्तविक संख्या नहीं है। यहां दूरदर्शन के सशक्त जनमाध्यम होने की चर्चा
इसलिए की जा रही है क्योंकि हाल ही में दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल
(डीडी-१) पर बहुचर्चित धारावाहिक 'उपनिषद गंगा' का प्रसारण शुरू हुआ है। ११
मार्च, २०१२ से प्रति रविवार सुबह १०:०० से १०:३० बजे तक यह प्रसारित हो
रहा है। दरअसल, धारावाहिक उपनिषद गंगा भारतीय संस्कृति, परंपरा और चिंतन पर आधारित है। उपनिषद की विभिन्न कथाओं को लेकर डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी
ने इसे बनाया है। इसके निर्माण में चिन्मय मिशन का अमूल्य योगदान है। डॉ.
चंद्रप्रकाश द्विवेदी टेलीविजन जगत में 'चाणक्य' धारावाहिक से प्रसिद्ध
हुए। ९० के दशक में चाणक्य भारतीय टेलीविजन का बेहद चर्चित और क्रांतिकारी
धारावाहिक रहा है। आज भी इसकी उतनी ही मांग है। दूरदर्शन को नई ऊंचाईयां
चाणक्य से मिलीं। डॉ. द्विवेदी मुंबई में उन विरले लोगों में से एक हैं जो
भारतीय संस्कृति और साहित्य को लेकर काम कर रहे हैं। उन्होंने अमृता प्रीतम
के उपन्यास 'पिंजर' पर इसी शीर्षक से फिल्म बनाई। इसे फिल्म समीक्षकों ने
खूब सराहा। पिंजर के लिए डॉ. द्विवेदी को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। प्रसिद्ध उपन्यासकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर आधारित उनकी फिल्म 'मोहल्ला अस्सी'
तैयार है। फिलहाल तो डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी और दूरदर्शन का राष्ट्रीय
चैनल डीडी-१ 'उपनिषद गंगा' को लेकर चर्चा में है। उपनिषद गंगा सभ्यता और
संस्कृति के विकास की गाथा है। इसमें उपनिषद की कहानियों के साथ ही पुराण
और इतिहास की कहानियों को भी सम्मिलित किया गया है। याज्ञवल्क्य-मैत्रैयी,
नचिकेता, सत्यकामा-जाबाल, जनक, गार्गी, उद्दालक, श्वेतकेतु, अष्टावक्र,
हरिशचंद्र, भृर्तहरि, जड़भरत, प्रह्लात, वाल्मीकि, भास्कराचार्य, वरहमिहिर,
शंकराचार्य की कहानियां धारावाहिक में आधुनिक परिप्रेक्ष्य में दिखाई
जाएंगी। इसमें चाणक्य, तुलसीदास, मीराबाई, पुंडलिक और दाराशिकोह तक की
कहानियों को भी शामिल किया गया है।
पर्यावरण, साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाने के कार्य में संलग्न संस्था 'स्पंदन'
के कार्यक्रम में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी का भोपाल आना हुआ। इस दौरान
सिनेमा, टेलीविजन और संस्कृति पर उनका व्याख्यान हुआ। उनसे एक सज्जन ने
पूछा- आपने इतना बढिय़ा धारावाहिक बनाया है तो इसे किसी निजी चैनल पर
प्रसारित क्यों नहीं करवाया? दूरदर्शन को आज कौन देखता है? इस पर डॉ.
द्विवेदी ने बहुत ही गंभीर और सोचने को विवश करने वाला जवाब दिया। उन्होंने
कहा- दूरदर्शन और निजी चैनल में रिमोट के एक बटन का ही तो फर्क है। इसके
अलावा दूरदर्शन भारत का राष्ट्रीय चैनल है, इसकी पहुंच भी व्यापक है।
स्पंदन के ही कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि भारत में सिनेमा की शुरुआत
सांस्कृतिक मूल्यों के साथ हुई। दादा साहेब फाल्के ने १९१३ में पहली फिल्म
राजा हरिश्चंद्र बनाई। हालांकि आज मुंबई में साहित्य पर काम करने वाले लोग
कम ही बचे हैं। दरअसल, पहले शिक्षा, प्रसार और प्रचार टेलीविजन के आधार थे
लेकिन बाजारवाद ने सब कबाड़ा कर दिया है। आज टेलीविजन और सिनेमा से शिक्षा
गायब है। वहीं, संस्कृति और साहित्य के लिए दूरदर्शन पर जितना गंभीर काम हो
रहा है उतना कहीं और नहीं। यही कारण है कि हम टेलीविजन के सामने घंटेभर
बैठे रहते हैं और लगातार चैनल बदलते रहते हैं, देखते कुछ नहीं।
दूरदर्शन के प्रति डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के आग्रह को देखकर
ही यह आलेख लिखने का संबल मुझे मिला। भारत में दूरदर्शन ५३ बरस का हो गया
है। इस दौरान उसने तमाम अनुभव जुटाए। दूरदर्शन का काफी विकास और विस्तार
हुआ। आज दूरदर्शन ३० चैनल का बड़ा परिवार है। १५ सितंबर, १९५९ को भारत में
टेलीविजन की शुरुआत हुई थी। बाद में, निजी चैनल्स की बाढ़-सी आ गई। फिलवक्त
देश में करीब ५०० निजी चैनल हैं। भारत में दूरदर्शन का स्वरूप कैसा हो? इस
बात की चिंता के लिए समय-समय पर कमेटियां (चंदा कमेटी, बीजी वर्गीस कमेटी
और पीसी जोशी कमेटी) बनी। पीसी जोशी कमेटी ने कहा था- टेलीविजन किसी भी देश
का चेहरा होता है। अगर किसी देश का परिचय पाना है तो उसका टेलीविजन देखना
चाहिए। वह राष्ट्र का व्यक्तित्व होता है। स्पष्ट है कि दूरदर्शन पर भारतीय
संस्कृति का प्रतिनिधत्व करने वाले कार्यक्रम ही प्रसारित होना चाहिए, इस
आशय की रिपोर्ट पीसी जोशी के नेतृत्व वाली कमेटी ने सरकार को सौंपी थी।
संभवत: यही कारण रहा कि भारतीय संस्कृति, साहित्य और चिंतन को बचाए रखने,
उसके संवर्धन और प्रोत्साहन में जो योगदान दूरदर्शन का है वह अन्य किसी का
नहीं। निजी चैनल्स ने तो पैसा बनाया और इसके लिए संस्कृति को विद्रूप भी
करना पड़ा तो किया, आज भी कर रहे हैं। भारत में जब निजी चैनल्स को प्रसारण
के अधिकार मिले तो टेलीविजन और साहित्य से जुड़े लोगों को एक उम्मीद जगी
थी, सोचा था प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। इससे चैनल्स पर प्रसारित होने वाले
कार्यक्रमों की गुणवत्ता में वृद्धि होगी। लेकिन, स्थिति विद्वानों की सोच
के विपरीत है। आज देश में चैनल्स की भीड़ है। उनके बीच प्रतिस्पर्धा भी है
लेकिन गुणवत्ता बढ़ाने की नहीं वरन गुणवत्ता गिराने की प्रतिस्पर्धा है।
निजी चैनल्स पर प्रसारण के क्षेत्र में उतरे तो उनके पास
दर्शकों का टोटा था। दूरदर्शन की दर्शक संख्या बेहद मजबूत थी। दूरदर्शन पर
प्रसारित अर्थपूर्ण कार्यक्रमों ने दर्शकों को बांधे रखा था। ऐसे में निजी
चैनल्स ने दूरदर्शन के दर्शकों को हड़पने के लिए बाकायदा षड्यंत्र रचा।
उन्होंने हिटलर के मंत्री गोएबल्स के प्रोपेगण्डा सूत्र का उपयोग
किया। 'दूरदर्शन घटिया है। दूरदर्शन पर प्रसारित सामग्री भी भला देखने वाली
है क्या? दूरदर्शन आउटडेटेड हो गया है।' ऐसे झूठ निजी चैनल्स के गुटों ने
जोर-जोर से चिल्लाकर और चालाकी से आमजन के अंतरमन में बैठा दिए। टीआरपी के
झूठे खेल में दूरदर्शन को पिछड़ा दिखाया गया। यह सच है कि निजी चैनल्स यह
भ्रम खड़ा करने में सफल रहे कि दूरदर्शन देखे जाने लायक चैनल नहीं है।
महानगरों में यह भ्रम आज भी कायम है। लेकिन, असल स्थिति इसके उलट है।
गोएबल्स का सूत्र 'एक झूठ को सौ बार बोलो वह सच लगने लगेगा' सफल नहीं
क्योंकि झूठ सच भले ही प्रतीत करा दिया जाए लेकिन वह सच नहीं बन पाता। सच
तो सच ही रहता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर की पराजय का एक कारण गोएबल्स
का यह सूत्र भी था। गोएबल्स अंत तक हिटलर को यही बताता रहा कि जर्मनी
युद्ध जीत रहा है जबकि रणक्षेत्र में कुछ और ही घट रहा था। ठीक यही स्थिति
दूरदर्शन और निजी चैनल्स की जंग के साथ है। १९८२ से १९९१ तक का समय भारतीय
दूरदर्शन का स्वर्णकाल रहा। इस दौरान दूरदर्शन ने न सिर्फ नायक गढ़े वरन एक
टेलीविजन संस्कृति का विकास भी किया। इस दौरान उसने कई ऐतिहासिक रिकॉर्ड
कायम किए। यह उसकी लोकप्रियता का दौर था। रंगीन प्रसारण (१९८२ में भार में
आयोजित एशियाड गेम्स से) और सोप ऑपेरा ने इसे और विस्तार दिया। महाभारत और
रामायण ने किंवदंतियां रचीं। कहते हैं कि महाभारत और रामायण के प्रसारण के
वक्त भारत की सड़कें सूनी हो जाती थी। दूरदर्शन पर प्रसारित हुए धारावाहिक
हमलोग, बुनियाद, ये जो जिंदगी है, विक्रम-बेताल, चंद्रकांता, करमचंद, तमस
और चाणक्य को जो लोकप्रियता हासिल हुई वो किसी भी निजी चैनल्स के किसी भी
धारावाहिक को नहीं मिल सकी। डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्मित
'उपनिषद गंगा' धारावाहिक इसी श्रंखला को आगे बढ़ाएगा यह तय है। ११ मार्च,
२०१२ से प्रति रविवार अब तक प्रसारित एपिसोड तो इसी बात की हामी भरते है।
डी.डी. 1 है नंबर 1
ReplyDeleteजानकारी से लबालब एक सार्थक लेख....
dhanywaad jaankari hetu....:)
ReplyDeletehttp://lekhikagunj.blogspot.in/
Sarthak avam ruchivardhk lekh
ReplyDeleteबेहतरीन समीक्षात्मक पोस्ट है .साक्ष्य समेटे दूरदर्शन की श्रेष्ठता का ,गुणवत्ता का ,इतिहास का प्रचार प्रसार और सेहत का . .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhaia
शनिवार, 30 जून 2012
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