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Wednesday, February 28, 2018

रिश्तों से नहीं, रंगों से खेले होली



होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते है,होली आई रे कन्हाई,जा रे हट नटखट ना खोल मेरा घूँघट,रंग बरसे भीगे चुनर वाली इन जैसे अनेक गीतों ने हमेशा हमारे मन को उत्साह और उमंग की नयी उर्जा से ओतप्रोत किया है. आज भी ये गाने होली के त्यौहार की मस्ती को दोगुना करते है, पर अब इस त्यौहार में आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति का बोलबाला साफ़ देखा जा सकता है. कुछ साल तक पहले हमारे घरों में संयुक्त परिवार की अवधारणा सार्थक होती थी.जिस कारण हर त्यौहार का उत्साह भी हटके होता था. परिवार में महीनों पहले से त्यौहार की तैयारियां प्रारंभ हो जाती थी, मिठाइयाँ और पकवानों की खुशबू हमें एक अलग ही एहसास कराती थी, हम त्यौहार के रोज ईश्वर को मिठाई और पकवान का भोग लगाके रंग गुलाल चढ़ाकर साथ ही अपने बड़ों के चरणों में लगा के आशीर्वाद के साथ एक दूसरे को लगाते थे और पकवान मिठाई का अपने पूरे परिवार, मित्रों,रिश्तेदारों के साथ आनंद उठाते थे. आज इस माहौल में हम सभी इस त्यौहार को मनाते तो है, पर हमारे लिए अब वो महत्व नहीं है जो हुआ करता था क्योंकि अब हम अपने जीवन की भागमभाग में लगे हुए हम अपने दोस्तों परिवार के सदस्यों के बीच समय बिताना क्या होता है भूलते जा रहे. त्यौहार  भी उस उत्साह के साथ नही मनाते,केवल रस्म अदायगी मात्र होती है. क्या हमने कभी सोचा त्यौहार का उत्साह आज महज औपचरिकता क्यों बन गया?  हमें इस ओर ध्यान देना होगा की क्यों हमारे परिवारों में संयुक्तता ना होकर एकल की इबारत पढ़ी जाने लगी है जो हम सबको अपनेपन और आत्मीयता के सागर से दूर कर एकल जीवन रुपी कुँए का मेंढक बना रहा है और हम इसे अपनी उन्नति और उचाईयों का शिखर मान रहे है. परिवार को दरकिनार करके सफलता का मापदंड तय करने में केवल स्वार्थ का मोल ज्यादा है,त्योहारों पर भी हम अपनी ऐसी ही कुछ वजहों के अनुसार इसका इस्तेमाल स्वार्थपरकता के लिए करते है. वास्तविकता यह है की त्यौहार की परम्पराओं ने शुरुआत से ही हमें एकजुटता और मिलनसारिता का पाठ पढ़ाया गया था. वो आज बीती बात हो गयी है. आज हम अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को तिरस्कृत भाव से देखते है और पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते हुए गर्वित होते है. शायद यही कारन है की होली जैसा सार्वजनिक मेलमिलाप का त्यौहार भी अब केवल सोशल मीडिया तक सीमित हो गया है. हम अब आपस में मिल जुलकर पर्व मनाने जैसे सामाजिक शिष्टाचारों तथा रिवाजों को दकियानूसी कदम कहने से भी नही हिचकिचाते. अगर कोई आज भी इस सामाजिक परंपरा को जीवित रखे है तो तो वो हमारी नजर में अनपढ़ और बेकार है. आज अगर रंगों के त्यौहार का  हमारे जीवन में रस्म जैसा भाव रह गया है, तो फिर जीवन में रंगों की वास्तविकता को लुप्तप्राय मान लेना अतिश्योक्ति नही है. वैसे रंगों के बिना क्या सुंदर जीवन की कल्पना सार्थक हो सकती है. नही न, तो फिर हमें रंगों को फिर से जीवन में लाने के प्रयास करना चाहिए,वो केवल त्योहारों के माध्यम से नही बल्कि अपनत्व की भावना को समाज में फैलाकर ही सम्भव है. जीवन जीना भी रंगों का प्रतिबिम्ब हैं. हँसना,सहयोग,मेलमिलाप,त्याग,समर्पण,रोना,धैर्य. सुख-दुःख और ख़ुशी ये सभी जीवन के अलग अलग रंग ही तो हैं जो हमारी जिन्दगी को इन्द्रधनुषी बनाते हैं.
आज वक्त का तकाजा है की आपसी सामंजस्य और सहयोग द्वारा परिवेश को बदलने के प्रयास होने चाहिए वर्ना त्योहारों के दौरान प्यार और अपनत्व की भाव के जगह नफरत,प्रतिस्पर्धा,कुंठित सोच की अधिकता बढती जाएगी और हम समाज के नाम एक एक परिवार या फिर एक व्यक्ति तक सिमटकर रह जायेंगे. त्यौहार को आपसी मनमुटाव दूर करने के माध्यम के तौर पर स्थान देना आवश्यक हो गया है. होली ने हमेशा से हमें रंगों के जीवन में महत्व का अभिप्राय समझाया है .होली का पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत और परस्पर मेलमिलाप से जीने की जीवनशैली का पर्व है. उत्तर भारत में होली पर प्रचलित प्राचीन कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप नामक राजा का बेटा प्रहलाद था, जो भगवान विष्णु का परम भक्त था, वो सदैव भगवान की भक्ति में लीन रहता था लेकिन उसका पिता स्वयं को भगवान् मानता था और उसे उसे भक्ति करने से रोकता था. जब प्रहलाद लाख कोशिशों के बाद भी भगवान् की भक्ति से दूर नहीं हुआ तो  राजा ने अपनी बहन होलिका को बुलाया और उससे प्रहलाद को दंड देने को कहा .होलिका को वरदान प्राप्त था कि अग्नि भी उसे जला नही सकती इसलिए राजा ने होलिका को प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि के बीच में बैठने का आदेश दिया,राजा जानते थे होलिका को तो कुछ नही होगा राजकुमार को दंड मिलेगा क्योंकि उसे तो कोई बचाने वाला है नहीं. परन्तु भगवान तो अपने भक्त में वास करते है तो फिर उसे कैसे कोई कष्ट दे सकता है, इसलिए जिस होलिका को वरदान प्राप्त था वो उस आग में भस्म हो गयी. प्रहलाद सुरक्षित बाहर आ गया. तब से होली के पर्व के एक दिन पहले होलिका और प्रहलाद की मूर्ति की स्थापना और पूजा की रीत चली आ रही  है. रात्रि में होलिका दहन किया जाता है, अगले दिन होली में रंगों को एक दूसरे को लगाकर पुराने गिले शिकवे भुलाने का प्रयास किया जाता है. वैसे पूर्वोत्तर में होलिका दहन की परंपरा नहीं है बल्कि इस दो दिवसीय पर्व के पहले दिन ठाकुर जी अर्थात भगवान् के चरणों में रंग-गुलाल अर्पित किया जाता है और फिर दूसरे दिन आम लोग परस्पर रंग खेलते हैं. होली का ये त्यौहार केवल देश में नहीं विदेशों में भी अपनी छाप छोड़ रहा है. होली में रंग का महत्वपूर्ण स्थान है, पर कई बार लोग इस रंगों के त्यौहार को बेरंग बना देते है,वो रंग,पेंट में खुजली करने वाले पाउडर, तेजाब जैसे ज्वलनशील तत्व मिलाकर लगाते है जो लगने पर अपना बुरा प्रभाव डालता है, इस तरह कई बार रिश्तों और दोस्ती में हमेशा के लिए खटास आ जाती है जो जीवन भर के लिए इस त्यौहार से दूरी का कारण बन जाती है.
अब समय आ गया है की हम मेलमिलाप और सामाजिक सहयोग के इस पर्व को पुनः उत्साह से मनाएं और इस दौरान समाज में घर कर गयी तमाम बुराइयों को होलिका की तरह होली की अग्नि में भस्म कर दे और बस रंग-अबीर-गुलाल के जरिये एक साथ मिलकर अपने सारे गिले शिकवे भुलाकर इस त्यौहार के महत्त्व को प्रतिपादित करें.  

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!