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Thursday, November 20, 2014

बाबा का भ्रम या वास्तव में बरम..!!!

छोटे परदे पर इन दिनों प्रसारित हो रहे धारावाहिक ‘उड़ान’ में बार बार डाक बाबा की चर्चा होती है. डाक बाबा इस कहानी का फिलहाल एक अहम किरदार भी हैं. वास्तव में डाक बाबा कोई भगवान, संत-महात्मा,गुनिया या ओझा नहीं बल्कि एक पेड़ है जिस पर वहां के बंधुआ लोगों को अपार विश्वास है और वे इस पर अपनी मन्नत की गाँठ लगाकर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. हाल ही में पूर्वोत्तर की बराक घाटी को करीब से जानने का अवसर मिला. असम का यह क्षेत्र बंगलादेश की सीमा से लगा हुआ है और खान-पान से लेकर बोलचाल तक के मामले में असम से ज्यादा निकटता बंगलादेश के सिलहट से महसूस करता है. यहाँ भी टीवी सीरियल के डाक बाबा की तरह एक बरम बाबा की मौजूदगी की जानकारी मिली.
बराक घाटी को भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के नाम से जाना जाता है. यहाँ विकास की गति का यह हाल है देश भर के साथ शुरू हुआ ईस्ट-वेस्ट कारीडोर का काम लगभग दो दशक बाद भी अटका हुआ है और रेल को मीटर गेज से ब्राड गेज में बदलने का काम भी कश्मीर में रेल नेटवर्क की नींव पड़ने के पहले शुरू हुआ था. कश्मीर में तो रेल धड़ल्ले से दौड़ने लगी परन्तु यहाँ पटरियों को चौड़ी करने का काम अभी तक पूरा नहीं हुआ है. कहने को तो यह इलाक़ा हवाई नेटवर्क से भी जुड़ा हुआ है लेकिन यहाँ से गुवाहाटी जाना भी इतना महंगा है कि आप उतने किराये में दिल्ली से देश के किसी भी भाग में आसानी से पहुँच सकते हैं.
खैर, बात बरम बाबा की, दरअसल बरम बाबा यहाँ किसी परिचय के मोहताज नहीं है. बरम बाबा से जुडी कहानियां यहाँ के चाय बागानों और उनमें काम करने वाले श्रमिकों के घर घर में सुनी जा सकती हैं. तक़रीबन 120 साल से समाधि के तौर पर पूजे जा रहे बरम बाबा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने महज 8 साल की उम्र में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरोध में समाधि ले ली थी. स्थानीय लोगों और मंदिर के पुजारियों के अनुसार 1832 में अंग्रेजों ने दक्षिण असम में कब्ज़ा करने के बाद यहाँ चाय उत्पादन का काम शुरू किया और मजदूरी के लिए बिहार,उत्तरप्रदेश और उड़ीसा से गाँव के गाँव उठाकर यहाँ ले आए. अंग्रेजों ने भोले भाले ग्रामीणों को कभी लालच दिया कि इस इलाक़े में पेड़ पर सोना लगता है तो कभी पेड़ पर पैसे लगने की कहानियां सुनाई. निरक्षर और दीन-दुनिया से अनजान लोग गोरे साहबों और उनके काले कारिंदों की बातों में लगकर यहाँ आ गए.
स्थानीय किवदंतियों के अनुसार इसी दौरान लंगटू राम नामक एक बच्चा भी परिवार के साथ यहाँ आया जिसे बचपन से ही कुछ आध्यात्मिक शक्तियां हासिल थी. जब अंग्रेजों ने चाय मजदूरों को बंधुआ मजदूर की तरह प्रताड़ित करना शुरू किया तो इस बच्चे ने विरोध किया और यहाँ प्रचलित कथाओं के मुताबिक अहिंसक विरोध के तहत उसने एक पेड़ के नीचे समाधि ले ली. तभी से यह स्थान बरम बाबा के नाम से आस्था का केंद्र बन गया.
 अंग्रेज तो चले गए लेकिन आस-पास बसी चाय श्रमिकों की बस्तियां पहले गाँव बनी और फिर शहर की मुख्यधारा का हिस्सा भी. जब जनसंख्या बढ़ी तो समस्याएं भी बढ़ने लगी और समस्याओं के समाधान के लिए बरम बाबा की मांग बढ़ने लगी. सुनी सुनाई कहानियों के साथ लोगों की भीड़ बढ़ने के साथ ही पहले बरम बाबा का मंदिर बना और अब विधिवत संचालन समिति भी काम कर रही है. समय के साथ यहाँ हर साल पूर्णिमा पर मेला लगने लगा और अब मेला भी 73 साल पूरे कर चुका है. मेले में राज्य के मंत्रियों से लेकर राज्यपाल तक शिरकत कर चुके हैं.
इस मंदिर की एक अनूठी बात यह है कि यहाँ अंग्रेजों के दौर में ग्रामीणों के साथ आए ब्राह्मण परिवार के सदस्य ही पूजा करते हैं. यहाँ ऐसे छः परिवार हैं और वे महीने के मुताबिक बारी-बारी से पूजा करते हैं. खास बात यह भी कि यहाँ तैनात पुजारियों को पूजा पाठ के एवज में मंदिर संचालन समिति की ओर से एक रुपया भी नहीं मिलता उल्टे पुजारी ही अपनी जेब से सालाना तौर पर 4 से 5 हजार रुपए मंदिर के कोष में जमा करते हैं. पुजारियों का कहना है कि बरम बाबा की कृपा से उनके लम्बे-चौड़े परिवार भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी ठाठ-बाट से गुजर बसर करते आ रहे हैं इसलिए वे वेतन नहीं लेते बस मंदिर के रोजमर्रा के चढ़ावे पर उनका हक़ होता है और उसी का एक हिस्सा वे बरम बाबा को वापस कर देते हैं.
बराक घाटी के बरम बाबा को हम देशी गिरमिटिया के भगवान बनने की कथा कह सकते हैं. वैसे बरम बाबा को शिक्षित तबका ब्राह्मण बाबा शब्द का अपभ्रंश भी मानता है क्योंकि इसतरह के पूजा स्थल आज भी उत्तरप्रदेश-बिहार में बहुतायत में हैं. कुछ लोग इसे पंडे-पुजारियों की रोजी-रोटी का जुगाड़ और अनपढ़ लोगों को ईश्वर के नाम पर डरा-धमकाकर राज करने का माध्यम भी मानते हैं. बहरहाल सच्चाई जो भी हो बराक घाटी में तो बरम बाबा तक़रीबन डेढ़ सौ साल से पूजनीय हैं और उनके प्रति श्रद्धा और श्रद्धालुओं की संख्या दोनों में ही इजाफ़ा हो रहा है.
  



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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!