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Sunday, May 18, 2014

लघु कथा : उजाले की ओर एक और कदम

   रात गहराती जा रही थी उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी कमरे में अँधेरा इतना कि हाथ को हाथ सुझाई नही दे रहे थे | उसकी जिंदगी में अँधेरा तो उसी दिन हो गया था जिस दिन उसने सुमित का हाथ थामा था पर फिर भी वो रौशनी की तलाश में अंधेरों से लड़ती रही | कभी उसका माथा फूट जाता, कभी आँखों के नीचे काला हो जाता तो कभी ठोकर खाकर गिरने से घुटना छिल जाता, अंधेरे में चलने से घाव तो लगने ही थे पर वो आगे बढ़ती रही | अब वर्षों बाद इतनी दूर आ कर उसे थोड़ी सी रौशनी नसीब हुई तो अचानक ही उसे फिर से ठोकर लगी और वो धड़ाम से उसी गहरी अंधेरी खाई में जा गिरी जहाँ फिर से उसके लिए अँधेरा के सिवा कुछ नही था| अब वो क्या करे इन्ही अंधेरों में रहकर कल अपना आस्तित्व खो दे या पुन: प्रयास करे उजालो की ओर बढ़ने का | एक अंतर्द्वंद से जूझ रही थी, वो क्या करे कुछ समझ नही आ रहा था, शरीर शिथिल होता जा रहा था निराशा के भाव उस पर हावी होते जा रहे थे | सोचते-सोचते वो अचानक जैसे उसने कुछ फैसला किया और अपनी आँखों को आँचल से पोंछा रोते-रोते आँखे फूल गयीं थीं और बुरी तरह से जल रहीं थीं | उसके चेहरे पर एक दृढ़ संकल्प था | अगर वो इतनी कठिन परिस्थियों से गुजरकर सबके लिए सब कुछ कर सकती है तो स्वयं के लिए क्यों नहीं, अब उसे खुद के लिए जीना है, तलाशेगी वो अब खुद के लिए चमकता हुआ नीला आसमान जो खुद उसका हो किसी का दिया हुआ ना हो | आगे बढ़ कर उसने खिड़की पर से मोटा पर्दा हटा दिया और सिर उठाकर आसमां की ओर देखा रात गुजर चुकी थी, सूर्य देव मुस्कुराते हुए उसके स्वागत को खड़े थे उनकी नारंगी रश्मियाँ उसे नहला रहीं थीं | नीले आसमां पर जैसे किसी ने नारंगी रंग उछाल दिया हो और तभी ढेरों परिन्दे एक साथ सुदूर अनन्त की ओर उड़ चले जैसे उन्हें भी अंधेरों से निजात मिली हो और आजाद हो वो गगन में सैर को निकले हों |
मीना धर पाठक
कानपुर, उ.प्र.

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