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Tuesday, November 5, 2013

कविता: मज़दूर


कल रात कि बासी रोटी को ,
आज मजे से खा रहा हूँ मैं ,
कल एक घर बना के आया था  ,
आज फिर बनाने जा रहा हूँ मैं ,

एक लोटा पानी पीकर ,
अपनी भूख मिटा रहा हूँ मैं ,
गम जो भी मन मैं था मेरे, 
उसको भुला रहा हूँ मैं,

मजदूर कि जो जिंदगी है 
उसको निभा रहा हूँ मैं 
अपनी मेहनत की रोटी 
को इज्जत से खा रहा हूँ मैं ,

मंदिर बनाये मस्जिद बनायें ,  
और मैंने कितने ही घर बनायें ,
फिर भी गोलियों का शिकार उन्होंने ,
मुझको और मेरे परिवार ही बनाये ,

देश के हर रस्ते ,हर गली ,हर कूंचे में 
तुमको बस एक मैं ही मैं दिखूंगा ,
और जब कोई ऊँची इमारत से गिरेगा ,
उसमें भी केवल तुमको मैं ही मिलूंगा ,

संजय कुमार गिरि



दिल्ली 
चित्र: गूगल से साभार 

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