सादर ब्लॉगस्ते पर आपका स्वागत है।

Wednesday, March 13, 2013

शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 17

कहानी: उपेक्षिता

आज कौशल्या घर में अकेली है और बहुत उदास भी | कल रात ही बेटे ने घर में प्रवेश करते ही बहू को बोला था कि – “कल सुबह 5 बजे घर से निकलना है” |

बहू ने पूछा – “कहाँ ” ? तो बेटे ने जवाब दिया – “आगरा, ताजमहल घूमने चलना है”|

बहू ने कहा –“एक-दम अचानक कैसे तैयारी हो गई आप की”?

बेटा बोला – “बस् बोल दिया, तैयारी कर लो सुबह ही निकलना है |

कौशल्या बैठी सब सुन रही थी | थोड़ी देर बाद कौशल्या ने कुछ सोच कर बहू को आवाज दी – “अदिती जरा बात सुनना” ( अदिती बहू का नाम था )|

अदिती आ कर बोली – “हाँ मम्मी जी बोलिए” |
कौशल्या बोली – “अगर जाना है तो कुछ रास्ते के लिए बना लो, बच्चे हैं साथ में उन्हें कुछ खाने को चाहिए, पता नही रास्ते में कुछ खाने को मिले या नही बच्चों को भूख लगी तो परेशान होगें” |
“अच्छा मम्मी जी” बोल के अदिती चली गई | रात के दस बज गये थे, कौशल्या भी ऊपर सोने चली गई |
अगले दिन सुबह अभी वो नहाने ही जा रही थी कि नीचे से बच्चे दौड़े हुए आये “दादी हम जा रहे है” बोल कर बच्चों ने कौशल्या के पाँव छुए और नीचे जाने लगे,
कौशल्या ने दोनों बच्चों को पकड़ कर गले लगा लिया फिर उनका माथा चूमते हुए बोली “देखो इधर-उधर ना भागना, मम्मी – पापा की ऊँगली पकड़ कर चलना” |
बच्चों ने मासूमियत से अपना सिर हिला के हामी भर दी और दौड़ते हुए नीचे चले गये |
कौशल्या आगे आ के रेलिंग पकड़ के खड़ी हो गई | पहले बच्चे गाड़ी में बैठे बाद में बहू गेट का खटका उपर से लगा कर बैठ गई, बेटे ने पहले से ही गाड़ी स्टार्ट कर रखी थी बहू के बैठते ही गाड़ी आगे बढ़ गई |
बच्चे अभी–अभी घर से निकले हैं तुरंत कैसे नहाऊं सोचते हुए कौशल्या ने नीचे आ कर गेट अन्दर से बंद कर लिया और आगे के कमरे में कम्बल ओढ़ के फिर से लेट गई  |
गेट खटकने की आवाज से चौंक कर उठ बैठी, घड़ी  की तरफ़ देखा – अरे.... !! आठ बज गये दूध वाला होगा | कौशल्या ने अन्दर से भगौना ला कर गेट खोल दिया “माँ जी सो रही थी क्या,? कितनी देर से गेट खटखटा रहा हूँ” बोलते हुए दूध वाले ने भगौना में दूध डाल दिया |
“हाँ झपकी लग गई थी” बोलते हुए कौशल्या ने गेट फिर से बंद कर दिया |
कौशल्या ने ढूध का भगौना चूल्हे पर रख कर गैस स्लो कर दिया और नहाने चली गई | अपना पूजा अर्चना निपटा कर अपने लिए चाय बनाया और चाय ले कर आगे के कमरे में बैठ गई | जितनी देर वो नीचे रहती इसी कमरे में बैठती |
कौशल्या सोचने लगी – “अगर बेटा एक बार मुझसे भी पूछ लेता कि मम्मी आप भी चलो, हम सब साथ चलते हैं, तो मुझे कितना अच्छा लगता | मैं तो वैसे भी घुटनों के दर्द से परेशान रहती हूँ | मैं भला कहाँ जाती उन लोगों के साथ पर एक बार वो मुझसे कहता कि मम्मी आप नही जाओगी तो अच्छा नही लगेगा, घर में अकेली क्या करोगी, चलो आप अपनी गाड़ी है कौन सा बस में धक्के खा के चलना है” तो मुझे बहुत खुशी होती |
अगर प्रताप आज होते तो मेरी अवहेलना करने की हिम्मत होती बेटे की ? कौशल्या की आँखों में आँसू आ गये | वो प्रताप की तस्वीर की तरफ़ देखने लगी |
वो धीरे से उठी और प्रताप की तस्वीर के पास पहुंच गई | तस्वीर पर जमी हुई धूल को आँचल से साफ़ करती हुई अपनी जगह पर बैठ गई | आँखों से आँसू बह निकले कौशल्या के गेट खटकने की आवाज से कौशल्या की सोच टूट चुकी थी | दोपहर के एक बज रहे थे | उसे पता ही नही चला | कौशल्या आँखों को पोंछ कर गेट खोलती है- आंटी.......... !! खुशी से चीखती हुई रूचि उसके गले से लिपट गयी | कौशल्या की आँखे तो पहले से ही भीगी थीं, सो आसुओं ने भी बाहर आने में देर नही लगाई | रूचि उसके आँसू पोछते हुए बोली-‘अरे आंटी आप तो खुश रहिये और स्वस्थ रहिये ताकि आपका हाथ हमारे सिर पर हमेशा बना रहे |’ कौशल्या के भीतर का दर्द छलक पड़ा, रो पड़ी रूचि के सामने ही |
“नही-नही ! मुझे लम्बी उम्र का आशीर्वाद ना दो | अब जिंदगी जिया नहीं जाता मुझसे | मेरी किसी को जरुरत नहीं | एक सामान की तरह घर में पड़ी रहती हूँ | हाथ पैर सही सलामत रहते हुए ही दुनिया से विदा हो जाऊँ तो बहुत अच्छा है | बोझ नही बनना चाहती बेटे-बहू पर |” कौशल्या को इस हाल में देख कर रूचि भी उदास हो गयी थी | “नही आंटी ऐसा मत कहिये |” उसकी आँखों में भी आँसू आ गये |
थोड़ी देर बाद कौशल्या ने खुद को सम्भाला और बोली - “कब आयी तुम ? मैंने तुम्हे भी उदास कर दिया "| रूचि बोली -“सुबह ही आयी हूँ  और कल वापस जाना है इसलिए आपसे इस समय मिलने आ गयी" | “आंटी मैं आपको इस हाल में नहीं देख सकती,खबरदार जो फिर कभी आँखों में आँसू लाईं आप" | कौशल्य मुस्कुरा दी “अच्छा बैठ मैं तेरे लिए खाने को कुछ ले कर आती हूँ" | (रूचि प्रताप के मित्र की बेटी थी | बचपन से ही वो कौशल्या के बहुत करीब थी | अब वो जॉब कर रही थी | जब भी घर आती, आ जाती थी उसके पास पास) रूचि समझ गयी थी कौशल्या के दिल का हाल | वो भी कौशल्या के पीछे पीछे रसोई में आ गयी | “ आंटी आज आपने क्या बनाया है ? भूख लगी है.........और ये घर खाली क्यूँ है ? भाभी और बच्चे कहाँ गये ?
“सब आगरा घूमने गये है” कौशल्या बोली | “अच्छा ! तभी आप अकेले उदास हो, अब समझी......हटिये आप मैं कुछ खाने को बनाती हूँ, बड़ी जोर की भूख लगी है "| रूचि

कौशल्या को हटा कर खुद रसोई में जल्दी से कुछ बनाने लगती है | थोड़ी देर बाद दोनों साथ मिल के खाना खाती हैं | आज ना जाने कितने दिनों बाद खाना अच्छा लगा | खाने में जब प्यार की भावना मिली हो तो वो कैसे नही अच्छा लगेगा | खाने के बाद दोनों आगे के कमरे में आ जातीं हैं |रूचि प्रताप की तस्वीर ले  सोफे पर बैठ कर ध्यान से देखने लगती है |
"आंटी.......अंकल जी कितने खूबसूरत और हैंडसम थे ना" ?? पूछते हुए रूचि मुस्कुरा कर कौशल्या की तरफ़ देखती है |
हाँ ... तुम्हारे अंकल बहुत खूबसूरत थे मैं उनके सामने कुछ भी नही थी  फिर भी उन्होंने मुझे पसन्द कर लिया था ये बोलते हुए कौशल्या मुस्कुरा दी | रूचि मन ही मन खुश हो गई ,यही तो चाहती थी वो कि कौशल्या उदासी से बहार निकले | रूचि ने दूसरा सवाल कर दिया - "आंटी आप की लव मैरिज हुई थी" ??
"नही रे......उस समय कहां इस तरह की शादियाँ हुआ करती थी और मेरे पिता जी तो बहुत कड़क थे"  बोलते हुए कौशल्या कुछ सोचने लगती है तब तक रूचि फिर से बोल पड़ी " आंटी  आप और अंकल जी की शादी कैसे हुयी थी बताइये ना मुझे जानना है .. प्लीज आंटी” | कौशल्या को भी पुरानी बाते याद आने लगी और वो
रूचि को बताने लगी .........
मेरे पिता जी मिलिट्री में थे, वहीं उन्होंने प्रताप को देखा | प्रताप बहुत खूबसूरत और होनहार थे | छै महीने पहले ही सेना ज्वाईन किया था प्रताप ने, उनकी मेहनत और लगन से पिता जी बहुत प्रभावित थे | मैं उस समय बीएड कर रही थी | माँ ने मुझसे धीरे से कहा था की “एक लड़का खाने पर आ रहा है, ध्यान से देख लेना तेरे पिता जी को बहुत पसन्द है वो, तेरी शादी के लिए सोच रहे हैं” |
करीब आठ बजे बहार बाईक रुकने की आवाज आई | पिताजी जल्दी से बहार निकले और प्रताप को ले कर अन्दर आ गये |
मैं दुसरे कमरे के पर्दे की ओट से प्रताप को देख रही थी | गज़ब के व्यक्तित्व के मालिक थे प्रताप | गोरा रंग, ऊँचा कद, गठा हुआ शरीर और खूबसूरत चेहरा | कोई भी लड़की जैसे राजकुमार के सपने संजोती है, बिल्कुल वैसे ही थे प्रताप | मैं पुलकित हो गई प्रताप को देख कर और शरमा कर रसोई में चली गई | थोड़ी देर में माँ भी अन्दर आ गईं, माँ ने मुझसे पूछा – लड़का कैसा लगा कनू (माँ मुझे प्यार से कनू बुलाती थी) ? शर्म से मेरे गाल लाल हो गये थे | माँ समझ गई थीं, वो बोलीं अच्छा जल्दी से खाना लगाओ | खाने पर पिताजी ने मुझे भी बैठा लिया था | शायद प्रताप को भी आभास हो गया था पिताजी की मंशा का | मुझे लग रहा था कि प्रताप मुझे ही देख रहे हैं | मैंने धीरे से पिताजी की ओर देखा, वो खाते हुए माँ से कुछ बातें भी कर रहे थे | मैंने हिम्मत कर के प्रताप की तरफ नजर उठाई, प्रताप मेरी तरफ ही देख रहे थे हमारी नजर मिलते ही प्रताप मुस्कुरा
दिए | मैंने शरमा कर नजर झुका ली थी | बस् हम उसी दिन एक दुसरे के हो गये थे |कुछ दिनों बाद प्रताप के माँ-बाबूजी मेरे घर आये थे और हमारी शादी तय हो गयी | पिता जी को डर था कि लड़का हाथ से ना निकल जाये | दो महीने बाद ही हमारी शादी हो गयी थी |
शादी के बाद जैसे समय के पंख लग गया | हम एक दुसरे में इतना खो गये कि पता ही नही लगा कि दो साल कैसे बीत गये |
एक दिन मम्मी जी ने टोका “कब तक फ्री रहोगी अब मुझे पोता चाहिए” तब हमें ख्याल आया | हमने डा. को दिखाया, सभी टेस्ट कराया, सभी रिपोर्ट नोर्मल थी | फिर क्या-जिसने जो बताया वो किया, पूजा,जप,व्रत,मंदिर-मस्जिद, क्या-क्या नही किया  माँ जी ने, और कहाँ-कहाँ नही गये हम मत्था टेकने | बड़ी मान-मनौती से शादी के पांच साल बाद बेटे का जन्म हुआ | हम सब बहुत खुश थे, हम सब की मुराद पूरी हो गयी थी | सभी मनौतियां पूरी करने का समय आ गया था और हमने की भी | पर समय एक सा कहाँ रहता है |
बेटे के जन्म के एक साल बाद ही प्रताप हमे छोड़ गये | मुझे लगा अब दुनिया में मेरे लिए कुछ भी नही बचा | प्रताप के बिना मैं जी के क्या करुँगी | मेरे चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा था | जीने की चाह नही रही थी मेरे दिल में | पर सबने मुझे बहुत सम्भाला, मुझे समझाया कि अब मुझे ही बेटे के लिए माँ और पिता दोनों की भूमिका निभानी है |
धीरे-धीरे मुझे भी ये बात समझ आने लगी थी कि अब मुझे अपने लिए नही अपने बेटे के लिए जीना होगा | मम्मी जी की हालत भी खराब रहने लगी थी, आखिर उन्होंने भी तो अपना एकलौता बेटा खोया था |
धीरे-धीरे मैंने हिम्मत बांधी | मेरी आत्मा तो प्रताप के साथ ही चली गयी थी, जिंदा थी तो सिर्फ अपने बेटे के लिए | मम्मी जी भी बीमार रहने लगी थी | मैं घर और स्कूल दोनों की जिम्मेदारी एक साथ नही निभा पा रही थी इस लिए मुझे स्कूल की नौकरी छोडनी पड़ी | पर मुझे इस बात की कोई चिंता नही थी, मुझे तो बस अपने बेटे की चिंता थी |
धीरे-धीरे घर और बेटे की जिम्मेदारियों में इतना खो गई कि प्रताप को याद करने की फुरसत ही नही रही |
कुछ सालों बाद मम्मी जी और पापा जी दोनों एक-एक कर के मुझे अकेला छोड़ गये | अब मैं और भी अकेली हो गई, अन्दर से बिल्कुल टूट चुकी थी पर ऊपर से मजबूत होने का दिखावा करती रही सबके सामने ताकि मुझे कमजोर समझ के कोई मेरा फायदा ना उठाये | अकेली औरत देख के दस लोग सहयोग के लिए हाथ आगे बढ़ाते हैं और लोगों ने बढ़ाया

भी पर मैंने किसी से भी सहयोग लेने से मना कर दिया | मेरे पास किसी चीज की कमी नही थी और जो कमी थी उसे कोई पूरा नही कर सकता था फिर मैं क्यों लेती किसी से सहयोग | अपने को मजबूत कर के परिस्थितियों से लड़ने की ठान ली मैंने, फिर मैंने पीछे मुड के नही देखा |
समय ने फिर से एक बार रफ़्तार पकड़ ली थी | बेटे की कक्षाओं के साथ-साथ बेटा भी बढ़ने लगा | जो बेटा मेरी गोद में समा जाता था, अब उसे देखने के लिए मुझे सिर उठाना पड़ता था | बिल्कुल प्रताप की छवि पायी थी बेटे ने | मेरे बालों में भी सफेदी झाँकने लगी थी | बेटे की पढाई पूरी होते ही वो जॉब में आ गया था |
हमारी इच्छाएं कभी समाप्त नही होती | अपने जवान बेटे को देख कर उसके लिए बहू लाने की इच्छा मेरे मन में हिलोरें लेने लगी थी | कुछ समय बाद उसकी शादी धूम-धाम से की | शादी में प्रताप की कमी मुझे बहुत अख़री पर क्या करती हिम्मत बाँध कर सारे रस्म निभाती गई | बहू का गृह प्रवेश करते समय मेरी खुशी का ठिकाना नही था | एक माँ को बेटे की शादी की कितनी खुशी होती है ये तो एक माँ ही बता सकती है | बहू घर आ गई थी | सभी रिश्तेदार धीरे-धीरे जा चुके थे | ज़िंदगी फिर से रफ़्तार पकड़ने लगी थी |
बहू के आने के कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा पर धीरे-धीरे बेटे के ब्यवहार में बदलाव महसूस किया मैंने | पर मैंने खुद से ही खुद को समझाया “अरे...!! नई-नई शादी है, अपनी दूल्हन के साथ समय बिताएगा या मुंझ बुढिया के साथ” |
खैर, समय बीतने लगा और समय के साथ-साथ बेटा भी बदलने लगा | जो बेटा कहीं से आते ही मेरे पास बैठता था, बातें करता था, दिन भर उसने क्या-क्या किया वो सब कुछ मुझे बताता था, साथ में खाता था वो सब बंद हो गया था | अन्दर ही अन्दर बेटे की अवहेलना मुझे खाए जा रही थी | अकेले खाना खाना मुझे अच्छा नही लगता था | खाने पर बहू से पूछती की बेटा कहाँ है, तो उसका जवाब होता कि “आप खा लीजिए वो जब आयेगें तब खा लेंगें | मैं अन्दर ही अन्दर घुट के रह जाती, बस् जीने के लिए खा रही थी | नही रोज तो छुट्टी के दिन तो सब मेरे साथ बैठ कर खाना खा ही सकते थे | अब तो वो सीधे मेरे पास भी नही आता था | मै अगर आगे के कमरे ने बैठी हूँ तो वो सीधे अपने कमरे में चला जाता था | जो घंटों मुझसे बाते करता था,वो अब मेरा हाल पूछने भी नही आता था | अकेलापन मुझे खाए जा रहा था, अब प्रताप की बहुत आद आती थी |
दिन पर दिन बेटा व्यस्त होता गया और मुझसे दूर भी | एक ही घर में रहते हुए कई-कई दिन बीत जाता था एक दुसरे से बात किये हुए | बहू अपने काम में लगी रहती थी, उसके पास भी समय नही था मुझसे दो बाते करने के लिए | समय – समय पर मुझे खाना दे दिया करती थी, वो भी उसका एक काम ही था जो निपटती थी | एक दिन तो हद ही हो गई | उस दिन प्रताप की बहुत याद आ रही थी, मैं बहुत दुखी थी उसी समय बहू आ कर बोली – “मम्मी जी खाना ला रही हूँ आप खा लीजिए” |
मै अपने आँसू पोंछ के बोली –“ आज मेरा मन नही है खाने का, तबियत कुछ ठीक नही है” | मैंने सोचा बहू मेरे पास बैठ कर पूछेगी कि – “मम्मी क्या हुआ, आप इतनी उदास क्यूँ हैं”| पर ऐसा कुछ भी नही हुआ | बहू अपने काम में लग गई |
मैं ऊपर जा लेट कर रोने लगी | करीब दस बजे रात को गाड़ी का हार्न बजा | मै समझ गई कि बेटा आ गया, थोड़ी देर बाद सीढियों से किसी के आने का आभास हुआ | मै समझ गयी बेटा आ रहा है मुझे खाना खिलने | थोड़ी देर बाद मेरे कानो में एक कड़ी आवाज आयी “क्यों, आप खाना क्यों नही खा रहीं ? मैंने लेटे-लेटे ही सिर घूमा के देखा, बेटा-बहू दोनों खड़े थे |
मैंने धीरे से कहा – “ऐसे ही भूख नही है मुझे” |
बेटे ने अदिती कि तरफ देखा और बोला – “मम्मी का खाना यही ला के रख दो, जब भूख लगेगी तो खुद ही खा लेंगीं” |
मेरे कानो में जैसे किसी ने गरम सीसा उड़ेल दिया हो | दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया, अन्दर से आँसूओं का सैलाब फूट पड़ा | मैंने अपना मुंह आँचल से दबा दिया | बेटे बहू के वहा से जाते ही मेरी हिचकियाँ शुरू हो गयी | मैं तो ये सोच रही थी कि मेरा बेटा मुझे प्यार से खिलायेगा, वो बोलेगा कि “ जब तक आप नही खाओगी मैं भी नही खाऊँगा" पर एक दम उल्टा हुआ उसे परवाह नही थी, मैं खाऊं या ना खाऊं मेरा खाना अदिती ऊपर रख गयी थी | इन दोनों के जाते ही मै फूट-फूट के रो पड़ी |
क्या कर दिया मैंने इसके साथ जो शादी के बाद ये  इतना बदल गया | माना की इसकी जिम्मेदारियां बढ़ गईं हैं पर मेरे प्रति इसकी कोई जिम्मेदारी नही ? मैंने तो हमेशा इसकी खुशियाँ ही चाहीं, पर ये इतना बेपरवाह हो गया मुझसे कि मैं इस घर की कुछ भी  नही रह गयी | किसी के पास थोड़ा समय नहीं था मेरे पास बैठने को | कौशल्या की आखों से गिरते हुए आसुओं ने तकिये को भिगो रखा था |
रूचि की आँखों से भी आँसूं निकल पड़े वो सोफे से उठ कर दीवान पर आ के बैठ जाती है और लेटी हुई कौशल्या के सीने पर अपना सिर रख के सुबकने लगती है |
" मैंने तो सपने में भी नही सोचा था कि भैया-भाभी का बर्ताव ऐसा है आप के साथ और आप घुट-घुट के जी रहीं है आखिर उनका भी तो एक बेटा है कल को यही बर्ताव वो उनके साथ करे तो उन्हें कैसा लगेगा” | आसूँओं के साथ ही बेटे बहू के प्रति गुस्से के भाव रूचि के चेहरे पर देख कौशल्या उठ के बैठ जाती है और रूचि का माथा चूमते हुए बोलती है - "बस बच्चे बस अब नही रोते" उसके आँसूं पोंछती है | बेटी को रोते देख अपने आँसू भूल गई थी कौशल्या |
बेटियां ऐसी ही होती हैं माँ के दिल का दर्द उनके दिल तक ना पहुँचे ये कैसे हो सकता है | वैसे तो रूचि कौशल्या की अपनी बेटी नही थी पर आज उसे महसूस नही हुआ कि दोनों में खून का रिश्ता नही है |
साथ बात करते हुए समय का पता ही नही लगा कब शाम हो गयी | रुचि चली गयी, शाम के लिए भी खाना बना के रख गयी थी और जाते-जाते हिदायत दे गयी थी कि रात में मैं खाना जरूर खा लूँ | बस् इतना ही तो चाहती थी कौशल्या कि कोई उसके पास थोड़ी देर बैठे और प्यार से खाना परोस के दे | रोज़ ना सही पर कभी-कभी तो बेटा बहू भी उसके साथ खाना खा लें और कुछ भी नहीं चाहिए था | बच्चों को भी बैठने नही देती अदिती |जब भी वो मेरे पास आ के बैठते हैं, होमवर्क करने के बहाने बुला लेती है |
काश .... !! के माँ जी ने एक बेटी के लिए इतनी मान - मनौतियां की होती यही सोचते-सोचते कौशल्या की आँख लग गयी |
गाड़ी का हार्न सुन कर कौशल्या की आँख खुल जाती है  | घड़ी में ग्यारह बजे थे | कौशल्या ने उठ कर दरवाजा खोला | बच्चे खुशी से उछलते-कूदते अन्दर आ गये | कौशल्या ने अदिती से कहा-“रूचि आयी थी,उसने सबका खाना बना दिया है, सब हाथ मुंह धो कर खाना खा लो |”
“नहीं मम्मी जी हम खाना खा चुके हैं आपने तो खा ही लिया होगा  आप जा कर सो जाइये हम लोग भी सोएंगे बहुत थक गये हैं” अदिती ने बोला | कौशल्या भारी मन से सीढ़ियों की तरफ बढ़ जाती है, एक उपेक्षिता सी |

अगले दिन बारह बजे तक कौशल्या नीचे नही आई तो अदिती ने काम वाली बाई से कहा - “लक्ष्मी जरा देख तो मम्मी जी आज क्या कर रहीं हैं अभी तक, अच्छा रुक ये चाय भी लेती जा दे देना” | चाय ले कर लक्ष्मी ऊपर की ओर बढ़ गई |
“बहू जी”..... लक्ष्मी की जोर से चीखने की आवाज आई |अदिती तेजी से ऊपर की ओर भागी |
"क्या हुआ लक्ष्मी" ? हांफते हुए अदिती ने पूछा |
“देखो ना बहू जी माँ जी कुछ बोलती ही नहीं”.....लक्ष्मी ने घबराई हुई आवाज मे कौशल्या की तरफ इशारा करते हुए कहा |
अदिती ने कौशल्या के ऊपर से कम्बल हटा दिया | कौशल्या के तकिये के पास प्रताप की तस्वीर रखी हुई थी और कौशल्या लेटी थी, एकदम शांत, अब उसे किसी के साथ की जरुरत नही थी क्यों कि अब वो अकेली नही थी | वो जा चुकी थी अपने प्रताप के पास हमेशा-हमेशा के लिए ||

( हम अपने बेहद बिजि शेड्यूल से अगर थोड़ा सा वक्त निकाल कर अपने बुजुर्गों को दें तो शायद कोई भी कौशल्या इस तरह अकेलेपन की शिकार हो कर इस दुनिया से विदा ना हो | हमारे बुजुर्गों को हमारा प्यार और साथ चाहिए बस और कुछ नही  )
 
रचनाकार: सुश्री मीना धर द्वेदी पाठक


कानपुर, उत्तर प्रदेश

22 comments:

  1. शुक्रिया शांती जी

    ReplyDelete
  2. उम्रदराज इंसान की व्यथा उकेरने के लिए धन्यवाद!
    अनंत शुभकामनायें आदरणीया मीना जी!
    सादर गीतिका 'वेदिका'

    ReplyDelete
  3. बेहद मार्मिक बेहद प्रिय और बेहद जरूरी एक कहानी !

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय आनंद जी.. सादर आभार

      Delete
  4. रोचक एवं मर्मस्पर्शी कथा !!

    ReplyDelete
  5. bahut acchi kahani meena di.. Aaj ki geratn ki ka katu satya..

    ReplyDelete
  6. Yakinan bahot marmik kahani .bus jarurat he esase ham sikh le. q ki aaj maa ya pita g bujurg he kal hamari bari he.bete ko chahiye ki o patni or maa pita g me samangasy bana kar rakhe.

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय रमा शंकर जी ..सादर आभार

      Delete
  7. sach aaj kee bhaag daud me har ghar me maa baap upekshit hain khas kar ke jinke ghar me maa yaa baap sirf akele bachte hain kyun ki unkaa dukh baantne walaal to jaa chukaa hotaa hai-
    behad khoobsooratee se aur sahaj wa sarl shabdon me likhee gayee kaushaylaa kee kahaanee man ko choo gayee

    aap bahut bahut badhaaee kee paatra hain Meenaa jee
    aap isee tarah kahaaniyaa likhtee rahen
    meree shubhkaamnaaye aapke saath hai

    Mukesh allahabadee

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय मुकेश जी ..कहानी सराहने के लिए हार्दिक आभार

      Delete
  8. बहुत ही सुंदर लिखा ...एक एक दर्द की बहुबी उकाराया है....

    ReplyDelete
  9. really very nice. i think everyone should read this.




    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद सारिका

      Delete
  10. बहुत बहुत धन्यवाद दिव्या दी

    ReplyDelete
  11. मीना जी बहुत अच्छी रचना है ये

    ReplyDelete

यहाँ तक आएँ हैं तो कुछ न कुछ लिखें
जो लगे अच्छा तो अच्छा
और जो लगे बुरा तो बुरा लिखें
पर कुछ न कुछ तो लिखें...
निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!