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Monday, August 5, 2013

पीड़ा

प्रिय ! कुछ अव्यक्त पीड़ा
तुम समझ पाते
यदि तुमसे कह दूँ
ये मेरा प्रेम न होगा
अन्तर्मन कर रहा यह
सस्वर करुण पुकार
तुम से छिपा कर कुछ
जख्म सी लिए हैं कुछ
अभी भी बाकी है
स्नेह मरहम रख देते
उन जख्मों पर
सपनों को सँजो लेते
मिल कर बुने थे जो
बनाने को नवनीड़
सुनीड़ दुर्लभ सा
मांग लूँ तुमसे ये
मेरा प्रेम न होगा
 प्रिय ! कुछ अव्यकत पीड़ा। 

अन्नपूर्णा बाजपेई
कानपुर, उ. प्र.

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