पत्नी ने बड़े प्यार से पूछा, "मेरी आँखे कैसी
हैं?"
मुझे इन बातों से बहुत कोफ़्त होती थी, फिर भी नकली मुस्कुराहट से बोला, "ये क्या पूछती हो? आइना देखो न वो भी देखता रह जायेगा. मन में आया कि कह दूँ वो तो चटक जायेगा इतनी भयानक आँखे देखकर पर मन की आवाज़ को मन में ही दबा लिया."
वो फिर से इठला कर बोली. "अजी बताओ न मेरे होंठ कैसे हैं?"
मन में आग लग गयी उसके इस सवाल से. दिल में आया कि कह दूँ कि जला दो ऐसे होठों को जो सदा चुगली ही करते हैं, लेकिन मेरा मूड लड़ने का बिलकुल नहीं था. फिर से नकली मुस्कुराहट के साथ बोला, "गुलाब को मत दिखाना अपने होंठ. गुलाब भी शर्मिंदा हो जायेगा."
इस तरह वो कुछ न कुछ पूछती रही और मैं अपनी कुढ़न को दबाता हुआ झूठ पर झूठ बोलता रहा. इस औरत ने मेरे भाई-बहन, माँ-बाप सब छुडवा दिए थे. उन्होंने भी मेरे सुख के लिए मुझसे रिश्ता तोड़ लिया था और तब से मैं यहाँ इसके मायके में बैठा इसकी बकवास सुनता और चुपचाप ऑफिस चला जाता. तनख्वाह आते ही सारे पैसे इसके हाथ में रख देता और अपने बस पास के पैसों के लिये हाथ फैला देता उसके सामने. पता था कि कुछ देर में सारे पैसे सासू माँ के हाथ में चले जाने हैं और मैं कुछ भी कह नहीं पाउंगा. पहले कहता था लेकिन अब रोज़ की किचकिच से तंग आकर कहना बंद कर दिया था, क्योंकि फिर बातें तो मुझे ही सुननी पड़ेंगी. पत्नी की कलह से तंग आकर जब घर से अलग हुआ था तो रहने का कोई ठिकाना न होने के कारण कुछ दिनों के लिये ससुराल रूका था. उसके बाद कहीं जा ही नही सका. माँ-बेटी ने मिलकर ऐसा शब्दजाल बिछाया कि मैं उलझकर रह गया था. काश उस वक्त कुछ हिम्मत की होती, तो आज ये हाल तो न होता. अब तो आदत सी हो गई है सब सहने की. सुबह पैर घसीटता आफिस चला जाता और रात को मुंह लटकाता आ जाता. जो खाना मिलता बिना हील-हुज्जत के खाकर सोने के लिये आ जाता. जब कभी भी विरोध करना चाहा तो माँ-बेटी ने ये धमकी देकर मेरा मुँह बंद कर दिया कि वो लोग पुलिस में पिपोर्ट करेंगे कि पति पत्नी को मारता है तो फिर लगाते रहना कोर्ट के चक्कर , और मैं घुटकर रह जाता. मन में यही आता कि सब नियम आज औरतों के लिए क्यों बन रहे हैं? क्या औरत हर बात में ठीक होती है? क्या मर्द सदा गलत होता है? इन नियमों के कारण कितना सहना पड़ता है रोज़ मुझे. जी चाहता है कि एक चिठ्ठी सरकार के नाम लिखूँ और ख़ुदकुशी कर लूँ. यूँ रोज़-रोज़ मरने से तो एक ही बार मर जाना अच्छा है.
मुझे इन बातों से बहुत कोफ़्त होती थी, फिर भी नकली मुस्कुराहट से बोला, "ये क्या पूछती हो? आइना देखो न वो भी देखता रह जायेगा. मन में आया कि कह दूँ वो तो चटक जायेगा इतनी भयानक आँखे देखकर पर मन की आवाज़ को मन में ही दबा लिया."
वो फिर से इठला कर बोली. "अजी बताओ न मेरे होंठ कैसे हैं?"
मन में आग लग गयी उसके इस सवाल से. दिल में आया कि कह दूँ कि जला दो ऐसे होठों को जो सदा चुगली ही करते हैं, लेकिन मेरा मूड लड़ने का बिलकुल नहीं था. फिर से नकली मुस्कुराहट के साथ बोला, "गुलाब को मत दिखाना अपने होंठ. गुलाब भी शर्मिंदा हो जायेगा."
इस तरह वो कुछ न कुछ पूछती रही और मैं अपनी कुढ़न को दबाता हुआ झूठ पर झूठ बोलता रहा. इस औरत ने मेरे भाई-बहन, माँ-बाप सब छुडवा दिए थे. उन्होंने भी मेरे सुख के लिए मुझसे रिश्ता तोड़ लिया था और तब से मैं यहाँ इसके मायके में बैठा इसकी बकवास सुनता और चुपचाप ऑफिस चला जाता. तनख्वाह आते ही सारे पैसे इसके हाथ में रख देता और अपने बस पास के पैसों के लिये हाथ फैला देता उसके सामने. पता था कि कुछ देर में सारे पैसे सासू माँ के हाथ में चले जाने हैं और मैं कुछ भी कह नहीं पाउंगा. पहले कहता था लेकिन अब रोज़ की किचकिच से तंग आकर कहना बंद कर दिया था, क्योंकि फिर बातें तो मुझे ही सुननी पड़ेंगी. पत्नी की कलह से तंग आकर जब घर से अलग हुआ था तो रहने का कोई ठिकाना न होने के कारण कुछ दिनों के लिये ससुराल रूका था. उसके बाद कहीं जा ही नही सका. माँ-बेटी ने मिलकर ऐसा शब्दजाल बिछाया कि मैं उलझकर रह गया था. काश उस वक्त कुछ हिम्मत की होती, तो आज ये हाल तो न होता. अब तो आदत सी हो गई है सब सहने की. सुबह पैर घसीटता आफिस चला जाता और रात को मुंह लटकाता आ जाता. जो खाना मिलता बिना हील-हुज्जत के खाकर सोने के लिये आ जाता. जब कभी भी विरोध करना चाहा तो माँ-बेटी ने ये धमकी देकर मेरा मुँह बंद कर दिया कि वो लोग पुलिस में पिपोर्ट करेंगे कि पति पत्नी को मारता है तो फिर लगाते रहना कोर्ट के चक्कर , और मैं घुटकर रह जाता. मन में यही आता कि सब नियम आज औरतों के लिए क्यों बन रहे हैं? क्या औरत हर बात में ठीक होती है? क्या मर्द सदा गलत होता है? इन नियमों के कारण कितना सहना पड़ता है रोज़ मुझे. जी चाहता है कि एक चिठ्ठी सरकार के नाम लिखूँ और ख़ुदकुशी कर लूँ. यूँ रोज़-रोज़ मरने से तो एक ही बार मर जाना अच्छा है.
रमाजय शर्मा
जापान
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यहाँ तक आएँ हैं तो कुछ न कुछ लिखें
जो लगे अच्छा तो अच्छा
और जो लगे बुरा तो बुरा लिखें
पर कुछ न कुछ तो लिखें...
निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!