सादर ब्लॉगस्ते पर आपका स्वागत है।

Thursday, June 6, 2013

कविता: शहर में चांदनी

भागो कि सब भाग रहे हैं
शहर में

कंकरीले  जंगलों में

मुंह छिपाने के लिए
चाँद
ईद का हो या
पूर्णिमा का
टी.वी. में निकलता है अब

रात मगर क्या हुआ

मेरी परछाई के साथ
चांदनी चली आई
कमरे में
शौम्य, शीतल,

उजास से भरी हुई

लगा मेरा कमरा
एक तराजू है
और
मैं तौल रहा हूँ
चांदनी को 
एक पलड़े में रख कर
कभी खुद से

कभी अपने तम से

लगा रहा हूँ हिसाब

कितना लुट चुका हूँ

शहर में !

सुशील कुमार


 पता : ए-26/ए, पहली मंजिल, 
पांडव नगर, मदर डेरी के सामने, दिल्ली-110092 

No comments:

Post a Comment

यहाँ तक आएँ हैं तो कुछ न कुछ लिखें
जो लगे अच्छा तो अच्छा
और जो लगे बुरा तो बुरा लिखें
पर कुछ न कुछ तो लिखें...
निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!