बहुत तेजी से भागती है पूंजी
मानो वक्त से आगे निकल जाना हो इसे
मानो अपनी मुट्ठी में दबोच लेना हो समूचा ब्रह्माण्ड
समूची धरती, खेत, नदियाँ और पहाड़
बच्चों की किलकारियां,
मजदूरों का पसीना,
किसानों का श्रम,
मेहनतकशों के हकूक,
आज़ादाना नारे,
और वह सब कुछ
जो उसकी रफ़्तार के आड़े आता हो
वह बढ़ाना चाहती है अपनी रफ़्तार प्रतिपल
लेकिन बहुत जल्दी हांफने लगती है पूंजी
और जब पूंजी हांफने लगती है
तब खेतों में अनाज की जगह बंदूकें उगाई जाती हैं
भूख के जवाब में हथियार पेश किये जाते हैं
परमाणु, रासायनिक और जैविक
पूंजी पैदा करती है दुनियां के कोने-कोने में रोज नए
भारत-पकिस्तान
उत्तर-दक्षिण कोरिया
चीन-जापान
इसराइल-फिलिस्तीन
फिर हंसती है दोनों हाँथ जाँघों पर ढोंक कर
सोवियत संघ के अंजाम पर
अफगानिस्तान पर
ईराक पर
मिश्र पर
अपनी हंसी खुद दबाकर
बगलें झांकती है पूंजी
वेनुजुवेला और क्यूबा के सवाल पर
दम फूल रहा है प्रतिपल
हांफ रही है पूंजी
और खेतों में अनाज की जगह उग रहीं हैं बंदूकें
पूंजी आत्मघाती हो रही है दिन-ब-दिन।
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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!