(यह व्यंग्य समर्पित हैं उन महान लेखकों को जो स्वयं ही बड़े बने हुए हैं और सबके सामने बड़े बन तनकर खड़े हुए हैं।)
हुज़ूर आपने मुझे बिल्कुल ठीक पहचाना। जी हाँ मैं व्यंग्यकार हूँ, वो भी बड़ा व्यंग्यकार। आपने अख़बारों में मुझे पढ़ा तो होगा ही। मेरे व्यंग्य अक्सर अख़बारों में जगह पाते ही रहते हैं। मैं नियमित तौर पर छपता हूँ, इसलिए कुछ दुष्ट ईर्ष्यावश मुझे छपतेराम नाम से संबोधित करने लगे हैं। उन्होंने मेरा नाम छपते राम तो रख दिया, लेकिन उन्होंने मेरा कड़ा परिश्रम नहीं देखा। करीब बीस अख़बारों में मैं रोज अपने व्यंग्य भेजता हूँ, तब कहीं जाकर एक-दो अख़बारों में जगह हासिल हो पाती है। मैंने एक-दो अख़बारों के संपादकों का भेजा इतना चाटा है, कि वे बेचारे मेरा व्यंग्य सामने आते ही उसे झट से अपने अखबार में छाप देते हैं। अब जो दिखता है, वही तो बिकता है। सो मैं भी छपते-छपते दिखने लगा हूँ और एक न एक दिन बिकने भी लगूँगा। आप मानें या न मानें पर मैं एक बड़ा व्यंग्यकार हूँ। चलिए मैं आपको प्रमाण देकर स्पष्ट करता हूँ, कि मैं बड़ा व्यंग्यकार हूँ अथवा नहीं। देखिए मैं नियमित रूप से व्यंग्य लिखता हूँ और मेरे पास बड़ी कार भी है। इस कार से मैं नामी-गिरामी व्यंग्यकारों को आवागमन की सुविधा देता रहता हूँ और बड़े-बड़े व्यंग्यकारों की भांति मैं तुरंत-फुरंत ऑन-डिमांड व्यंग्य अपने उर्वरक मस्तिष्क से उत्पन्न कर देता हूँ। तो हुआ न मैं बड़ा व्यंग्यकार। जब कभी मुझे व्यंग्य हेतु विचार की कमी पड़ती है, तो मैं नए व्यंग्यकारों के व्यंग्यों में से थोड़ा - बहुत माल उड़ाकर एक नया व्यंग्य पैदा कर देता हूँ। नए व्यंग्यकारों में इतना सामर्थ्य नहीं होता, कि मुझ जैसे पुराने और पके व्यंग्यकार से दो - दो हाथ कर सकें। इसलिए वह बेचारा मुझसे पंगा न लेने में ही अपनी भलाई समझता है। फिर भी कुछ ढीठ प्रकार के युवा भी इस दुनिया में हैं, जो इतनी आसानी से मेरा पीछा नहीं छोड़ते। ऐसे ढीठों से निपटने के लिए मैं अपने चेले और चेलियों को आगे कर देता हूँ और स्वयं जुगाड़ करके इधर-उधर सम्मानित होना आरंभ कर देता हूँ। मेरी प्रसिद्दी से प्रभावित होकर ढीठ युवा शांत होकर बैठ जाते हैं और इस प्रकार मामला रफा-दफा हो जाता है। किसी के भी लेखन की ऐसी - तैसी करना आपकी बहुत बुरी आदत है। आप मेरे व्यंग्यों से न जाने क्यों खार खाये बैठे रहते हैं। देखिए साब आप माने चाहे न माने पर मैं जिस प्रकार के व्यंग्य लिखता हूँ, आजकल वैसे ही व्यंग्यों की डिमांड है। आप इसे फूहड़, सस्ता या चलताऊ जैसी अनेक उपमाओं से सुशोभित कर सकते हैं, लेकिन अब जनता को ऐसे ही व्यंग्य भाते हैं। मेरे व्यंग्य हास्य बोध और गांभीर्य से परिपूर्ण होते हैं, इसलिए हर ऐरे-गैरे, नत्थूखैरे की समझ में नहीं आ पाते। सो मेरे व्यंग्यों को पढ़कर या सुनकर कोई हँसे या न हँसे, मैं स्वयं ही उनपर मुस्कुराता हूँ और जी भर कर खिलखिलाता हूँ। माना कि मेरे समझाने व आश्वासन देने के बावजूद आपको मेरे व्यंग्यों में कोई स्पष्ट उद्देश्य, गांभीर्य अथवा साहित्यिक पुट का अभाव दिखे, लेकिन इस समय मैं छप रहा हूँ और लोगों के बीच चर्चित भी हूँ। तो आप चाहे जितना हो हल्ला कर लें और मुझे साहित्य जगत का अछूत घोषित करने का नाकामयाब षडयंत्र कर लें, मुझपर कोई फर्क नहीं पड़नेवाला, क्योंकि मैं अब एक जाना - पहचाना नाम हूँ। तो अब ज्यादा चिल्ल – पों करना छोड़कर इस बात को स्वीकार कर ही लीजिए कि मैं व्यंग्यकार हूँ और वो भी बड़ा व्यंग्यकार।
हुज़ूर आपने मुझे बिल्कुल ठीक पहचाना। जी हाँ मैं व्यंग्यकार हूँ, वो भी बड़ा व्यंग्यकार। आपने अख़बारों में मुझे पढ़ा तो होगा ही। मेरे व्यंग्य अक्सर अख़बारों में जगह पाते ही रहते हैं। मैं नियमित तौर पर छपता हूँ, इसलिए कुछ दुष्ट ईर्ष्यावश मुझे छपतेराम नाम से संबोधित करने लगे हैं। उन्होंने मेरा नाम छपते राम तो रख दिया, लेकिन उन्होंने मेरा कड़ा परिश्रम नहीं देखा। करीब बीस अख़बारों में मैं रोज अपने व्यंग्य भेजता हूँ, तब कहीं जाकर एक-दो अख़बारों में जगह हासिल हो पाती है। मैंने एक-दो अख़बारों के संपादकों का भेजा इतना चाटा है, कि वे बेचारे मेरा व्यंग्य सामने आते ही उसे झट से अपने अखबार में छाप देते हैं। अब जो दिखता है, वही तो बिकता है। सो मैं भी छपते-छपते दिखने लगा हूँ और एक न एक दिन बिकने भी लगूँगा। आप मानें या न मानें पर मैं एक बड़ा व्यंग्यकार हूँ। चलिए मैं आपको प्रमाण देकर स्पष्ट करता हूँ, कि मैं बड़ा व्यंग्यकार हूँ अथवा नहीं। देखिए मैं नियमित रूप से व्यंग्य लिखता हूँ और मेरे पास बड़ी कार भी है। इस कार से मैं नामी-गिरामी व्यंग्यकारों को आवागमन की सुविधा देता रहता हूँ और बड़े-बड़े व्यंग्यकारों की भांति मैं तुरंत-फुरंत ऑन-डिमांड व्यंग्य अपने उर्वरक मस्तिष्क से उत्पन्न कर देता हूँ। तो हुआ न मैं बड़ा व्यंग्यकार। जब कभी मुझे व्यंग्य हेतु विचार की कमी पड़ती है, तो मैं नए व्यंग्यकारों के व्यंग्यों में से थोड़ा - बहुत माल उड़ाकर एक नया व्यंग्य पैदा कर देता हूँ। नए व्यंग्यकारों में इतना सामर्थ्य नहीं होता, कि मुझ जैसे पुराने और पके व्यंग्यकार से दो - दो हाथ कर सकें। इसलिए वह बेचारा मुझसे पंगा न लेने में ही अपनी भलाई समझता है। फिर भी कुछ ढीठ प्रकार के युवा भी इस दुनिया में हैं, जो इतनी आसानी से मेरा पीछा नहीं छोड़ते। ऐसे ढीठों से निपटने के लिए मैं अपने चेले और चेलियों को आगे कर देता हूँ और स्वयं जुगाड़ करके इधर-उधर सम्मानित होना आरंभ कर देता हूँ। मेरी प्रसिद्दी से प्रभावित होकर ढीठ युवा शांत होकर बैठ जाते हैं और इस प्रकार मामला रफा-दफा हो जाता है। किसी के भी लेखन की ऐसी - तैसी करना आपकी बहुत बुरी आदत है। आप मेरे व्यंग्यों से न जाने क्यों खार खाये बैठे रहते हैं। देखिए साब आप माने चाहे न माने पर मैं जिस प्रकार के व्यंग्य लिखता हूँ, आजकल वैसे ही व्यंग्यों की डिमांड है। आप इसे फूहड़, सस्ता या चलताऊ जैसी अनेक उपमाओं से सुशोभित कर सकते हैं, लेकिन अब जनता को ऐसे ही व्यंग्य भाते हैं। मेरे व्यंग्य हास्य बोध और गांभीर्य से परिपूर्ण होते हैं, इसलिए हर ऐरे-गैरे, नत्थूखैरे की समझ में नहीं आ पाते। सो मेरे व्यंग्यों को पढ़कर या सुनकर कोई हँसे या न हँसे, मैं स्वयं ही उनपर मुस्कुराता हूँ और जी भर कर खिलखिलाता हूँ। माना कि मेरे समझाने व आश्वासन देने के बावजूद आपको मेरे व्यंग्यों में कोई स्पष्ट उद्देश्य, गांभीर्य अथवा साहित्यिक पुट का अभाव दिखे, लेकिन इस समय मैं छप रहा हूँ और लोगों के बीच चर्चित भी हूँ। तो आप चाहे जितना हो हल्ला कर लें और मुझे साहित्य जगत का अछूत घोषित करने का नाकामयाब षडयंत्र कर लें, मुझपर कोई फर्क नहीं पड़नेवाला, क्योंकि मैं अब एक जाना - पहचाना नाम हूँ। तो अब ज्यादा चिल्ल – पों करना छोड़कर इस बात को स्वीकार कर ही लीजिए कि मैं व्यंग्यकार हूँ और वो भी बड़ा व्यंग्यकार।
रचनाकार: सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत
मानना तो पडेगा ही भाई.....बेहतरीन प्रस्तुति.
ReplyDeleteराजेन्द्र कुमार जी शुक्रिया...
Deleteजबमाने बिना नहीं मानोगे तो लो मान लिया आप वाकई व्यंगकार हो वोह भी बड़े
ReplyDeleteअब जरा यह छोटे मस्करों पर भी रौशनी डाल ही दीजिएगा
गुज़ारिश : ''..इन्कलाब जिन्दाबाद ..''
सरिता भाटिया जी हमारी कहाँ औकात हैं बड़े व्यंग्यकार बनने की. ये सौभाग्य तो कुछ विशेष प्रजाति के मानुषों को ही प्राप्त है और उन्हीं के सम्मान में इस व्यंग्य की उत्त्पत्ति हुई...
Deleteवाह ! व्यंग्यकारों पर ही व्यंग्य !!
ReplyDeleteजी हाँ .. मान लिया आप बड़े व्यंगकार हैं ... बधाई
ReplyDeleteसुमित जी,चलिए आज आपको सबसे बड़ा व्यंगकार मान ही लेते है ,,,बधाई भी स्वीकार करें
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनायें!,,
Recent post: रंगों के दोहे ,
बहुत - बहुत शुक्रिया किंतु निवेदन है कि इस व्यंग्य को एक बार गौर से फिर पढ़ें और फिर अपनी राय रखें...
Deleteहोली की बहुत-बहुत शुभकामनायें !!
ReplyDeleteआपको भी होली की हार्दिक शुभकामनाएँ...
Deleteबड़ी कार वाले ही बड़े व्यंग्यकार हो सकते हैं, छोटी कार वाले छोटे व्यंग्यकार। और हम जैसे बिना कार वाले बेकार ही सही हैं :)
ReplyDeleteव्यंग्य पढ़ते पढ़ते चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई सुमित जी, सधे शब्दों में अपनी बात कही है।
संजय अनेजा जी इस बे-कार व्यंग्यकार की ओर से बहुत-बहुत शुक्रिया...
Deleteसुन्दर लेख आप को बधाई
ReplyDeleteशुक्रिया सिददीकी जी...
Deleteआधुनिकता में लिपटे कुछ स्वयंभू बनते व्यंगकारों पर बढ़िया टीप लगी ....
ReplyDeleteआज मेरा आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ ...लेकिन इस व्यंगकार से मिलकर बहुत ख़ुशी हुई ...
ReplyDeleteयदि आप बड़े व्यंग्यकार हैं तो हम भी बड़े पाठक हैं इसलिए आप जैसे "बड़े" व्यंग्यकार को "बड़े" पाठक की और से सादर अभिनन्दन...अच्छा और सराहनीय लेखन
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