जियो वतन के वास्ते
मरो वतन के वास्ते
माटी का कर्ज़ चुकाने को
कुछ करो वतन के वास्ते
उनका भी क्या जीना है
जो खुद ही जीते-मरते हैं
जो मिटते देश की खातिर
वो मरके भी न मरते हैं
अब तक जिए अपनी लिए
कभी मरो वतन के वास्ते
जियो वतन के...
वतन की दिल इबादत हो
वो ही सच्चा आशिक है
जिसके दिल में इसकी चाहत हो
आए कोई भी तूफां
न डरो वतन के वास्ते
जियो वतन के...
वीर कभी श्रृंगारों में
वक्त नहीं जाया करते
मौसम कुर्बां होने के
न बार-बार आया करते
जब भी धरा पुकारे तुमको
न डरो वतन के वास्ते
जियो वतन के...
लेखक- सुमित प्रताप सिंह
नई दिल्ली
क्या बात है,सुमितजी, और क्या जज्बा.शानदार!
ReplyDelete"राह क़ुर्बानियों की न वीरान हो,तुम सजाते ही रहना नये क़ाफ़िले.""ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर,जान देने की रुत रोज़ आती नहीं."
शुक्रिया युगल जी...
Deleteशुक्रिया अंजू चौधरी जी...
ReplyDeleteवाह सुमित जी क्या खूब लिखा है ..... बहुत बधाई। इस गीत को तर्ज और अपनी आवाज कब दे रहे हो .....बहुत ही अच्छा गीत है।
ReplyDeleteawaome.. जियो वतन के वास्ते...
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