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Sunday, October 21, 2012

कठिन है ‘शब्द साधना’ की राह

    पने ब्लॉग (अपना पंचू) पर मैंने आखिरी पोस्ट (बड़ों के लिए किस्से बचपन के) २४ सितंबर को प्रकाशित की थी। तब से लेकर अब तक भारी व्यस्तता का दौर रहा। इस बीच पढऩे-लिखने का क्रम ही टूट गया। शिखा वार्ष्णेय की पुस्तक ‘स्मृतियों में रूस’ को रोज लालायित होकर देखता हूं, लेकिन पढ़ नहीं पा रहा हूं। कारण एक ही है भारी व्यस्तता। १६ अक्टूबर को बालक पांच माह का हो गया। अपने नन्हें राजकुमार को भी समय देने में असमर्थ हूं। कल तो श्रीमती जी ने ताना मार ही दिया- तुम्हारे पास तो परिवार के लिए समय ही नहीं है। अपुन सुनकर रह गए। और कर भी क्या सकते थे। खैर, आप सोच रहे होंगे कि मैं ऐसा कौन-सा मील चला रहा था? हमारे इधर कहावत है- मील चलाना। जो मनुष्य यह कहता हुआ पाया जाता है कि मेरे पास समय नहीं है। दूसरे मनुष्य उसे पलटकर यही कहावत सुना देते हैं- तुम कौन-सा मील चला रहे, जो तुम्हारे पास दो मिनट का भी समय नहीं है। कुछ नहीं दोस्तो अभी-अभी संस्थान बदला है। राजस्थान पत्रिका को विदा कह कर नई दुनिया (जागरण ग्रुप) आया हूं। नया माहौल, नया सिस्टम, थोड़ा सहज होने में समय तो लगता ही है। फिर अपुन तो महाआलसी राम हैं। जरा-सा बदलाव, थोड़ा देर से सोना, बहुत देर से उठना। समय कब निकल जाता है अपुन को पता ही नहीं चलता।
     खैर, अभी तक की कहानी शीषर्क से मेल नहीं खा रही न?  चलो यू टर्न लेते हैं। गपशप छोडक़र मुद्दे की बात पर आते हैं। दरअसल, भारी व्यस्तता का एक और कारण है, जिसकी चर्चा मैं आप लोगों से करना चाहता हूं। इन दिनों में अपने पहले काव्य संग्रह के प्रकाशन को लेकर इधर-उधर हाथ-पैर मारने में लगा हूं। संग्रह तैयार है लेकिन प्रकाशक नहीं मिल रहा। मिले भी तो क्यों? अपुन कोई देश-विदेश में ख्याति अर्जित कवि हैं नहीं। अपुन कोई बेस्टसेलर बुक राइटर भी नहीं? साहित्य का कोई सामंत भी अपना मुंह बोला ताऊ नहीं। अपनी कविताओं से विवाद भी नहीं फैलने वाला। ‘लोकेन्द्र जी हम कविताएं नहीं छापते’। कई प्रकाशकों का यह जवाब सुनकर तो माथे पर चिंता की और लकीरें और बढ़ गईं। एक तो आटा कम था वह भी गीला हो गया। दोस्तो, इस भागम-भाग भरे डेढ़ माह में एक विद्वान ने अपुन को उम्मीद की लौ दिखाई कि लगे रहो बेटा जब तक सांस है, कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा। हारकर बैठ गए तो कुछ नहीं होना। उन्होंने यह मंत्र मुझे सीधे नहीं दिया। यह तो उन्होंने साहित्य जगत की बिडम्वना को लेकर कहा था। हुआ यूं कि मैं गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की पुस्तकों के लोकार्पण कार्यक्रम में पहुंचा। कार्यक्रम में मंच पर देश के बड़े साहित्यकार जगदीश तोमर जीऔर दिवाकर विद्यालंकार जी विराजमान थे। विद्यालंकार जी ने अपने उद्बोधन में गिरिजा जी की पुस्तकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसके बाद उन्होंने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में दो तरह की साधना होती है। एक तो भाव साधना और दूसरी शब्द साधना। भाव साधना पहली साधना है। शब्द साधना अगली सीढ़ी है। भाव साधना में साहित्यकार कितना भी पारंगत हो जाए लेकिन उसकी साधना तब तक अधूरी है जब तक शब्द साधना पूरी न हो जाए। शब्द साधना का अर्थ बताते हुए उन्होंने कहा कि शब्द साधना का मोटा-मोटा अर्थ है भावों का प्रकाशित हो जाना। किसी साहित्यकार की कृति प्रकाशित होने में बड़ा श्रम लगता है। हिन्दी साहित्य में प्रकाशक या तो स्थापित नामों को ही छाप रहे हैं या फिर जो उन्हें धन देता है उसे छाप देते हैं। अर्थात् भाव साधना से भी अधिक परिश्रम और महत्व की साधना है शब्द साधना। लेखक और कवि की बात समाज में जन-जन तक पहुंचे उसके लिए शब्द साधना बहुत जरूरी है। विद्यालंकार जी ने आगे कहा कि निराश होकर रचनाकार कभी-कभी सोचता है कि उसकी कृति स्तरीय नहीं है। यह सोचकर वह उसे किसी संदूक या किसी कोने में छुपा देता है। ऐसा करके वह भावों की हत्या करता है। अशुद्धियों और त्रुटियों के डर से साहित्य रचना को प्रकाशित नहीं कराना गलत कदम है। सबकी रचनाओं में कमियां रह जाती हैं, जिन्हें समालोचना, आलोचना और समीक्षा के बाद दूर किया जाता है।
मित्रो उनके इस उद्बोधन ने अपने पिचकते फेंफड़ों में हवा भर दी। कार्यक्रम में ही जोश आ गया। मन ही मन तय किया कि अब और जोर-शोर से अपने काव्य संग्रह के प्रकाशन की तैयारी की जाएगी। शब्द साधना की कठिन डगर पर चल निकला हूं, देखते हैं कब पूरी होती है।

रचनाकार- श्री लोकेन्द्र सिंह राजपूत



4 comments:

  1. कठिन डगर है लेखन की. लगे रहिए लोकेन्द्र भाई क्योंकि कोशिश करने वालों की हार नहीं होती...

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  2. शब्द साधना वाकई कठिन है ....पर साधना के बेहतरीन परिणाम तो मिलेंगे ही ..शुभकामनाएं

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  3. बहुत महत्वपूर्ण बात कही विद्यालंकार जी ने।

    शब्दों की साधना करते रहने से शब्दों को साधना आ जाता है।

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!