उगा रहे हैं शहर में, सीमेंट के पेड़
पर्यावरण से होती, नित्य नई मुठभेड़
घर – घर में फ्रिज हो गए, घड़े रह गए चंद
छेद ओजोन परत का, कभी न होगा बंद
ट्रैफिक की चिल्ल – पों, मचा रही है कहर
होगा कुछ दिन बाद ही, बहरों का यह शहर
तप - तप कर धरती बनी, एक खौलती देग
प्रीतम वृक्ष दिखें नहीं, बरसें कैसे मेघ
तप - तप कर धरती बनी, एक खौलती देग
प्रीतम वृक्ष दिखें नहीं, बरसें कैसे मेघ
एसी की ठंडक नहीं, मिले नीम की छाँव
मनवा बोले चल सुमित, चलते हैं अब गाँव
लगता है जाना ही पड़ेगा...
ReplyDeleteमैं रास्ते में ही खड़ा मिलूँगा, लिफ्ट दे देना.. :)
Deleteवाह
ReplyDeleteशुक्रिया मोहन...
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