“मैं कबीर जी के इस दोहे से आज के परिपेक्ष में
सहमत नहीं हूँ.”
“क्यों भई ऐसी क्या बुराई है इस दोहे में?”
“आप ही गौर कीजिए समझ में आ जाएगा.”
“मुझे तो यह दोहा बहुत अच्छा लगता है. जाने आप ही
को इसमें क्या कमी दिख रही है?”
“देखिए मुझे इस दोहे में कोई कमी नहीं दिख रही.
कबीर का बहुत ही श्रेष्ठ दोहा है यह.”
“फिर दिक्कत कहाँ है?”
“जब कबीर जी का काल था, तो उस समय कुछ और बात थी,
लेकिन मेरे दोस्त अब तस्वीर बिल्कुल बदल चुकी है.”
“कैसी बात और कैसी तस्वीर? मेरे तो कुछ भी पल्ले
नहीं पड़ रहा है. कृपया अपनी बात स्पष्ट करें.”
“बात ये है कि कबीर जी के काल में गुरु और चेले
के सबंध कुछ और थे जो कि अब इस काल में नहीं रहे हैं.”
“जहाँ तक मैं देख रहा हूँ गुरु और शिष्य के
संबंधों में कोई समस्या नहीं है.”
“आप इस संबंध की सच्चाई को या तो देख नहीं पा रहे
हैं या फिर कबूतर की भांति आपकी आँखें बंद हैं.”
“वो कैसे?”
“वो ऐसे कि कबीर जी काल में अधिकतर गुरु ज्ञानी
होते थे और अपने शिष्यों को ज्ञान देते थे, लेकिन आज के समय में ऐसा कुछ नहीं है.”
“ऐसा भी तो हो सकता है कि गुरु शिष्य को ज्ञान
देना ही न चाहते हों.”
“गुरु द्वारा शिष्य को ज्ञान देने से क्या उनके
ज्ञान में घुन लग जाएगा?”
“और ऐसा भी तो हो सकता है कि आधुनिक शिष्य ज्ञान
लेने के लायक ही न हों.”
“दोस्त अब गुरु लायक
न हों तो शिष्य तो नालायक बनेंगे ही.”
“तो फिर अब समस्या कहाँ रह गई?”
“समस्या ये है कि गुरु यदि लायक हों भी तो भी वे
गुरु परंपरा को नहीं निभा रहे हैं. ऐसी बात नहीं है कि अच्छे गुरु अब नहीं रहे.
अच्छे गुरु अब भी मौजूद हैं, लेकिन बुरे गुरुओं की अधिकता के बीच उनकी उपस्थिति
नगण्य सी है.”
“गुरु वो भी अच्छे और बुरे. बात कुछ समझ में नहीं
आई.”
“चिंता मत करो बात समझ में आएगी. देखो अच्छे गुरु
वो होते हैं जो शिष्य को अच्छे-बुरे का ज्ञान दे. उसके द्वारा की गई गलती से उसे
परिचित करवाए. उसमें जो कमी है उसे दूर करने का उपाय बताए व उसे आगे बढ़ने को
निरंतर उत्साहित करे. तभी शिष्य की प्रगति होगी और यदि शिष्य प्रगति करेगा तो गुरु
की प्रगति और मान तो अपने आप ही बढ़ेगा.”
“और बुरे गुरु?”
“आजकल चहुँ ओर बुरे गुरु ही दिखाई देते हैं. वैसे
बुरे गुरु वो होते जो अहं भाव धरे हुए शिष्य को शिष्य नहीं केवल उपयोग की वस्तु
समझते हैं. आजकल के बुरे गुरु शिष्यों को पैर दबाने, शरीर की मालिश करवाने, घरेलू
कामों में प्रयोग करने अथवा अपनी अय्याशी में सहयोगी की भूमिका निभाने तक ही सीमित
रखते हैं. शिष्य इस आस में यह सब करते हैं कि शायद गुरु प्रसन्न होकर उसे ज्ञान से
फलीभूत कर दें, लेकिन यह शिष्य की भूल होती हैं. ऐसे बुरे गुरु ज्ञानहीन होते हैं
और यदि उनके पास ज्ञान होता भी है तो उसे अपने मस्तिष्करुपी कुएँ की कैद से बाहर
नहीं निकालना चाहते. या तो उन्हें यह डर रहता है कि उनका ज्ञान भंडार कम हो जाएगा
या फिर उनकी यह सोच रहती है कि कहीं चेला चीनी न हो जाए.”
“अरे बाप रे ऐसे हैं आजकल के बुरे गुरु.”
“हाँ और तो और ये शिष्यों को तो ज्ञान देने से
परहेज करते हैं, लेकिन शिष्यों द्वारा अर्जित ज्ञान को चोरी करने के मामले में ये
बिल्कुल बेशरम सिद्द होते हैं. शिष्य अपना ज्ञान लुटने के बाद उस घड़ी को याद करके
अपना सिर पीटते हैं, कि कौन सी मनहूस घड़ी में इस निर्लज्ज गुरु से पाला पड़ा.”
“हरे राम! हरे कृष्ण! शायद कलियुग है तभी ऐसे
बुरे गुरु हैं.”
“हाँ ये भी हो सकता है ये कलियुग की ही कृपा हो.”
“कलियुग के परिपेक्ष मुझे कबीर जी के दोहे का कुछ
नया प्रकार सूझा है.”
“सुनाओ.”
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय / बलिहारी
गोविंद जो, गुरु से लियो बचाय.”
“हा हा हा अति सुन्दर.”
“किन्तु इस समय जो
अच्छे गुरु बचे हुए हैं उनके बारे में कुछ सोचा है?”
“उनके लिए कबीर जी का दोहा अपरिवर्तित रूप में ही उपयुक्त है.”
सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली, भारत
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सुमित प्रताप सिंह,
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