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Saturday, April 6, 2013

व्यंग्य: समाजवाद जिन्दा है

   क्या कहा आपने? ज़रा फिर से तो कहना। समाजवाद मर गया है। अमां आज आपने भाँग-वाँग तो नहीं खा ली या फिर कहीं से गाँजे की चिलम के सुट्टे तो नहीं मारकर आ रहे हैं। देखिए इस बात को अपने दिमाग में अच्छी तरह से बैठा लें, कि जब तक यह समाज रहेगा, तब तक समाजवाद रहेगा। आप और हमारे द्वारा लाख कोशिशों के बाद भी यह नहीं मरनेवाला। अब आप अपनी तर्कों की पोटली खोलकर तर्क देंगे, कि समाजवाद यदि मरा नहीं है, तो इसने अपना भेष अवश्य बदल लिया है। देखिए आज़ादी के पहले से ही अपने देश से इसका पक्का याराना चल रहा है और तबसे ही यह खूब फल-फूल रहा है। यह इतना फल-फूल रहा है, कि फूल-फूलकर मुस्टंडा हो गया है और मुस्टंडे हो गये हैं इसकी छत्रछाया में अपना जीवन गुजर-बसर करनेवाले सभी जीव। अब आप अपनी पुरानी चिथड़े-चिथड़े हुई किताब से समाजवाद की रटी-रटाई वही पकाऊ परिभाषा सुनायेंगे, कि समाजवादी व्यवस्था में धन-संपत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियंत्रण के अधीन रहते है। इस परिभाषा को सुनते-सुनते स्कूल और कॉलेज का वक्त सोते-सोते गुज़र गया। अब आप फिर से सुलाने आ पहुँचे। संसार ने इतनी प्रगति कर ली और आधुनिक समय के साथ-साथ अपने नियम भी बदल डाले, लेकिन साहब आप और आपका समाजवाद उसी पुराने ढर्रे पर जी रहा है। अच्छा ठीक है। मैंने आपके ढेर सारे तर्कों को इतनी देर तक झेला अब आप भी तो मेरी कुछ सुनें। सबसे पहले तो यह बताने की कृपा करें, कि समाजवाद की इकाई क्या है? परिवार ही न। तो फिर आपने यह कैसे कह दिया, कि समाजवाद मर गया है। जब से देश आज़ाद हुआ है, तबसे ही देश की सत्ता पर कोई न कोई परिवार ही तो कुंडली मारकर बैठा हुआ है। जनता भी खुशी-खुशी हर चुनाव में उसे कुंडली मारकर बैठने का अधिकार सौंप देती है। समाजवाद के मरने का मातम मनाना छोड़कर एक बार पूरे देश का भ्रमण करके देख लें, कि समाजवाद कितनी तरक्की पर है। राजनीति में एक व्यक्ति के सफल होने पर उसके परिवार के सफल होने की 100%  गारंटी होती है। देश के कुछ राज्यों में राजनीतिक पदों पर पूरे परिवार के सदस्यों का कब्ज़ा इस बात का उदाहरण है, कि समाजवाद कायम है। आप और हमारा हो या न हो, लेकिन समाजवाद इन विशेष परिवारों का चारित्रिक गुण बन चुका है और समाजवाद की कृपा से अपना देश इन परिवारों की पैतृक जागीर बन चुका है। अब हम सब ठहरे इनकी जागीरों में किसी प्रकार अपनी जीवन की गाड़ी खींचने वाले मानुष। हम यदि इस समाजवाद के चक्कर में पड़ेंगे, तो यह हमें ऐसे चक्कर कटवाएगा, कि पेट भरने के भी लाले पड़ जायेंगे। इसलिए आपसे विनम्र निवेदन है, कि अपनी तर्कों की पोटली को अग्नि देव को समर्पित करके स्वाहा बोलिए, समाजवाद की सड़ी-नुची किताब को कूड़ेदान को समर्पित कीजिए और मेरी सलाह पर गौर फरमाकर इस बात को स्वीकार कर लीजिए, कि समाजवाद जिंदा है। 

व्यंग्यकार: सुमित प्रताप सिंह 


इटावा, नई दिल्ली, भारत 

3 comments:

  1. बहुत खूब सुमित जी ....हमने माना की समाजवाद काफी टेढ़ी डगर है हमारे लिए ... लेकिन समाजवादियों ने खुद के फायदे के लिए समाज को ही छला, जाहिर है ये कभी सामाजिक हो भी नही सकते !!

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  2. उफ़ ये समाजवाद,क्या क्या दिखाए.

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  3. समाजवाद जिन्दा है ... कभी तो अपने सही स्वरुप में आएगा ...
    सटीक व्यंग है देश के वर्तमान समाजवाद पे ...

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
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