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Saturday, September 29, 2012

व्यंग्य: कीमती लोग, कीमती भोग

चित्र गूगल बाबा की कृपा से साभार 
      एक थाली पर कितना खर्चा है..आजकल इसकी बड़ी चर्चा है। पता नहीं क्‍यों ताकते हैं लोग दूसरे की थाली में....क्‍या क्‍या भरा थाली में रखी प्‍याली में। अच्‍छी आदत तो नहीं है। मुझे भी पसंद नहीं है दूसरे की थाली में घी को देखना। वैसे तो निगोड़े डाक्‍टर ने अपनी ही थाली में घी देखने को मना कर दिया है। घी और मक्‍खन सब बंद है। मक्‍खन लगाना तो मेरी दिनचर्या में ही नहीं था। वैसे हमें ये बताया भी गया था कि मक्‍खन लगाने लगवाने से जिंदगी आसान हो जाती है..लेकिन स्‍वाभिमान  की कीमत पर l

दूसरों की थाली में झांकने की बात हो रही थी... थाली में खीर थी या खीरा, हल्‍दी थी या जीरा। इससे क्‍या होता है.. सबके घर में हैं। नहीं है तो बस वह रकम, जो थाली के साथ जुड़ी है। सात हजार सात सौ इक्‍कीस रूपये। हम दाल रोटी खाने वाले इतनी बड़ी रकम सुनकर खाना खाने के बजाए हवा खा जाते हैं। इस क्षेत्र में हमारा नजरिया संकीर्ण नहीं होना चाहिए था। बड़ी पार्टियों के गठबंधन की तीसरी सालगिरह थी। कीमत बड़ी हो गयी तो क्‍या हुआ...?  पहले एक रूपये में सोलह आने हुआ करते थे और एक आने की एक थाली हुआ करती थी। अब देखो न, इस पुरानी गरीबी को देखते हुए गरीबों की थाली भी पूरे सोलह रूपये की हो गयी है। उसकी भी तो कीमत बढ़ी ही है, इनकी थाली की बढ़ गयी तो इतनी चिल्‍ल-पों क्‍यों..?  जितने कीमती लोग.. उतना कीमती भोग। देश में तीन साल से लगातार मिलकर, खाने का उत्‍सव था। वैसे भी कोयले खाने के बाद कुछ स्‍वाद भी तो बदलना जरूरी था।

ये लोग सच में कीमती हैं। जब चाहे सरकार गिरा दें। सरकार भी अब क्रिकेट के विकिट की तरह हो गयी है। जो चाहे गुगली डाले और चुनाव करा ले। फिर बढ़ेगा देश पर बोझ। दावत का खर्च उस बोझ के मुकाबले नगण्‍य है। दावत पानी होता रहना चाहिए। इसके और भी बहुत से फायदे हैं.... दूसरे के पेट की पावर का भी पता चल जाता है। कौन, कितना हजम कर जायेगा..?  अब तक कितना खा चुका है, और कितना खायेगा..। यहीं खायेगा या घर भी ले जायेगा...। अकेला ही आया है या पूरे घर-परिवार-रिश्‍तेदार को भी साथ लाया है, आदि आदि। भले ही हम जैसों को, गैस का सिलिंडर, एक भी आदमी को दावत देने में आनाकानी करने को कह रहा हो...। उनके लिए तो सिलिंडरों का भी टोटा नहीं है।  

     इस थाली में, अखबार में छपी खबर के अनुसार कुल छत्‍तीस भोग थे। देश के बड़े लोग छत्‍तीस भोग नहीं खायेंगे तो कौन खायेगा। अखबार वाले भी अजीब होते हैं.... अभी दो दिन पहले ही सरकारी कर्मचारियों को सात प्रतिशत मंहगाई भत्‍ता मिलने की घोषणा हुई थी। घोषणा होने की खबर के साथ देश पर पड़ने वाले बोझ की गणना करना और उसे प्रकाशित करना नहीं भूले। छपा था.... सात हजार चार सौ आठ करोड़ का बोझ देश पर पड़ गया। मंहगाई भत्‍ता बढ़ने से बोझ और थाली की कीमत से....लगता है कि अखबार नवीसों के पास अभी इतने उन्‍नत कैलकुलेटर नहीं हैं कि इन तथाकथित कीमती लोगों के खर्चों की गणना कर पाएं... शायद....डिजिट कम पड़ जाएं....।

रचनाकार- श्री पी. के. शर्मा



यहाँ मिलेंगे- 1/12, रेलवे कालोनी, सेवा नगर, नई दिल्ली-03                                          

                                                               

1 comment:

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!