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Monday, July 23, 2012

पर्यावरण पर सुमित के तड़के


   
उगा रहे  हैं  शहर में, सीमेंट  के  पेड़
पर्यावरण से होती, नित्य  नई  मुठभेड़
    घर – घर में फ्रिज हो गए, घड़े रह गए चंद
     छेद ओजोन  परत का, कभी  न  होगा बंद 
    ट्रैफिक  की  चिल्ल – पों, मचा रही है कहर
   होगा कुछ दिन बाद ही, बहरों का यह शहर
   तप - तप कर धरती बनी, एक खौलती देग
   प्रीतम  वृक्ष   दिखें  नहीं, बरसें  कैसे मेघ
   एसी की  ठंडक  नहीं, मिले  नीम की छाँव
    मनवा बोले चल  सुमित, चलते हैं अब गाँव

4 comments:

  1. लगता है जाना ही पड़ेगा...

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    1. मैं रास्ते में ही खड़ा मिलूँगा, लिफ्ट दे देना.. :)

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निवेदक-
सुमित प्रताप सिंह,
संपादक- सादर ब्लॉगस्ते!