देश में इन
दिनों ‘राष्ट्रीय पेय’ को लेकर बहस जोरों पर है. इस चर्चा की शुरुआत योजना आयोग के
उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने की है. उन्होंने चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने
का सुझाव दिया है. अहलुवालिया का मानना है कि देश में दशकों से भरपूर मात्रा में
चाय पी जा रही है इसलिए इसे राष्ट्रीय पेय का दर्जा दे देना चाहिए. इस बात में कोई
दो राय नहीं हो सकती कि किसी एक पेय को राष्ट्रीय पेय का दर्जा दिया जाना चाहिए.जब
देश राष्ट्रीय पशु,पक्षी,वृक्ष इत्यादि घोषित कर सकता है तो राष्ट्रीय पेय में
क्या बुराई है? यह भी देश को एक नई पहचान दे सकता है और परस्पर जोड़ने का माध्यम बन
सकता है. हां ,यह बात जरुर है कि किसी भी पेय को राष्ट्रीय पेय के सम्मानित स्थान
पर बिठाने से पहले उसे देश के एक अरब से ज्यादा लोगों की पसंद-नापसंद की कसौटियों
पर खरा उतरना जरुरी है.
चाय को
राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव सामने आते
ही चाय का विरोध भी शुरू हो गया. चाय विरोधियों का मानना है कि चाय गुलामी की
प्रतीक है क्योंकि इसे अंग्रेज भारत लेकर आये थे और यदि चाय को राष्ट्रीय पेय बना
दिया गया तो यह उसीतरह देश को स्वाद का गुलाम बना देगी जिसतरह अंग्रेजी भाषा ने
देश को मानसिक रूप से गुलाम बना दिया है. चाय विरोधी लाबी ने चाय के स्थान पर
लस्सी को राष्ट्रीय पेय बनाने का सुझाव दिया है. लस्सी प्रेमियों का कहना है कि
चाय जहाँ सेहत के लिए नुकसानदेह है,वहीं लस्सी स्वास्थ्य वर्धक है. लस्सी के साथ देश
की मिट्टी की और अपनेपन की खुशबू भी जुडी है. राष्ट्रीय पेय को लेकर शुरू हुई इस
बहस से खांचों में बंटे मुल्क के लोगों को एक नया मुद्दा मिल गया है और विरोध के
साथ-साथ समर्थन में भी आवाज उठाने लगी हैं.चाय समर्थकों का कहना है कि चाय अमीरों
और गरीबों के बीच भेद नहीं करती और सभी को सामान रूप से अपने अनूठे स्वाद का आनंद
देती है. यही नहीं चाय की सर्वसुलभता,कम खर्च और स्थानीयता के अनुरूप ढल जाने जैसी
खूबियां इसे राष्ट्रीय पेय की दौड़ में अव्वल बनाती हैं.यह बेरोजगारी दूर करने का
जरिया भी है. अदरक, तुलसी, हल्दी, नींबू के साथ मिलकर और दूध से पिण्ड छुड़ाकर चाय
सेहत के लिए भी कारगर बन जाती है. इसे किसी भी मौसम में पिया जा सकता है मसलन
गर्मी में कोल्ड टी तो ठण्ड में अदरक वाली गरमा-गरम चाय.
चाय विरोधी इन सभी तर्कों और चाय की खूबियों से
तो इत्तेफ़ाक रख्रे हैं लेकिन वे अंग्रेजों की इस देन को अपनाने को तैयार नहीं
है.उनके मुताबिक लस्सी पंजाब से लेकर गुजरात तक लोकप्रिय है और फिर छाछ/मही/मट्ठा
के रूप में इसके सस्ते परन्तु सेहत के अनुरूप विकल्प भी मौजूद हैं. यह अनादिकाल से
हमारी दिनचर्या में शुमार है और रामायण-महाभारत जैसे पावन ग्रंथों तक में इसका
उल्लेख मिलता है.सबसे खास बात यह है कि यह हमारी संस्कृति और परंपरा से जुडी गाय
और उससे मिलने वाले उत्पादों दूध-दही-घी-मक्खन की बहुपयोगी श्रृंखला का ही हिस्सा
है. चाय और लस्सी से शुरू हुई इस बहस में अब दक्षिण भारत के घर-घर में पी जाने
वाली और दुनिया भर में अत्यधिक लोकप्रिय काफ़ी, फलों के रस, हर छोटे-बड़े शहर में
मिलने वाला गन्ने का रस और नींबू पानी से लेकर नारियल पानी जैसे तमाम घरेलू पेय भी
जुड़ते जा रहे हैं. अपनी कम कीमत,सेहत के अनुकूल और आसानी से उपलब्धता के फलस्वरूप
इन पेय पदार्थों को न तो राष्ट्रीय पेय की दौड़ से हटाया जा सकता है और न ही इनके
महत्व को कम करके आँका जा सकता है.अब चिंता इस बात की है राष्ट्रीय पेय को लेकर
छिड़ी यह बहस पहले ही भाषा और धर्म के आधार पर बंटे देश को टकराव का एक मौका और न
दे दे .
rashtriy pey pr apka yh aalekh bahut majedar laga ......sahi disha me sarthak chintan .
ReplyDeleteशुक्रिया नवीन जी,आपकी सराहना के लिए
ReplyDeleteमेरा वोट लस्सी के पक्ष में है... सार्थक लेख...
ReplyDeleteधन्यवाद सुमित जी,वाकई लस्सी से अपनेपन की खुशबू आती है
Deleteअच्छा आर्टिकल लिखा है.
ReplyDeleteहार्दिक आभार मोहन जी..
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